लघुकथा – मां होना कोई गुनाह नहीं
देवपुरा निवासी पुनीत ने पत्नी संध्या से कहा! देखो घर के बाहर कोई बैल बजा रहा है। संध्या ने दरवाज़ा खोला कर देखा तो एक 23 वर्षीय युवती थी l जिसके आंसू रुक नहीं पा रहे थे। संध्या ने पूछा! क्या हुआ रो क्यों रही हो। चुप होकर बताओ क्या बात हुई है। और नाम क्या है तुम्हारा! रोते हुए उसने अपना नाम सुखिया बताया। कहा इस समय मुझे काम की बहुत जरूरत है। संध्या ने कहा अच्छा ठीक है, काम तो तुम्हें मिल जाएगा। लेकिन तुम्हें हुआ क्या है।
सुखिया बोली कुछ मत पूछो बहन मेरी तो क़िस्मत ही फूट गई है। शादी को अभी चार साल ही हुए है। दो साल का बेटा विनय है। मेरे पति गिरधारी की टीबी की बीमारी के चलते सत्रह दिन पहले मृत्यु हो गई है। वे अपने माता-पिता के इकलौते बेटे थे l पति की बीमारी के चलते घर में तंगी का कहर है। घर में बेटा विनय के लिए खाना खाने तक के लिए राशन नहीं हैं। उसने कहा है, मै तो भूखी रह लूंगी। लेकिन वो अबोध बालक भला भूखा कैसे रह सकता है। इसलिए मुझे आज काम के लिए दर-दर भटकना पड़ रहा है। मकान मालकिन ने कहा अब तुम्हें भटकने की कोई जरूरत नहीं है, अब हम तुम्हें सहारा देंगे। तुम मन लगाकर काम करो पैसे के साथ खाना खुद खाकर और बेटे के लिए घर ले जाया करना। उसने मन लगाकर काम किया।
समय के साथ सुखिया ने बेटे विनय को खूब पढ़ाया। साथ में एक आलीशान मकान भी बनवाया। विनय बेटा अब बड़ा हो चुका है, साथ में पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग में नौकरी ज्वाइन कर ली है। पड़ोसी रमेश बोलता है, सुखिया अपने बेटे विनय की शादी कर ले। लड़की बहुत सुन्दर और पढ़ी लिखी है। तुम्हारे घर को स्वर्ग बना देगी। सुखिया ने कहा मैं दहेज में एक रुपया भी नहीं लूंगी। लेकिन बहू बहुत सुंदर और अच्छे संस्कार, सही चाल-चलन की होनी चाहिए। जिससे मेरा बेटा विनय खुशी से रह सके। सुखिया के बेटा विनय की शादी बड़ी धूम-धाम से हुई। घर में लक्ष्मी के रूप में बहू सरिता अाई। फिर से एक बार सुखिया का घर बसंत मौसम की तरह खिल उठा।
समय बीतता गया। अब सुखिया बूढ़ी हो चुकी हैं। नाती पोतों से पूरा घर भरा हुआ है। उम्र के साथ साथ सुखिया को बीमारियों ने जकड़ना सुरु कर दिया । कभी खांसी तो कभी बुखार, तमाम बीमारियां उसके शरीर में अपना घर बना चुकीं हैं। बहू नए खयालातों की है। उसको ये सब रास नहीं आया। वो नाती-पोतों को दादी के पास जाने नहीं देती हैं। सबको पता है, कि असली नाता तो नाती से ही होता है। शाम को जब विनय अपने कार्यलय से घर आता है, तो परिवार में किच-किच मिलती है। उसकी पत्नी सरिता उससे बात नहीं करती है। जब विनय पूछता है कि क्या हुआ है घर में कोई बताएगा।
बड़बड़ाती हुई सरिता बोलती है, हमसे क्या पूछते हो, अपनी महतारी से पूछो क्या हुआ है। मैं अब कुछ नहीं जानती। घर में अब मैं रहूंगी या तुम्हारी मां। तुम देख लो फैसला अब आपके हाथ में है। अगर मां को घर में रखना है। तो मै अपने बच्चों के साथ आत्महत्या कर लूंगी। ये सब बात सुनकर विनय दंग रह जाता है। वो अपनी मां के कमरे में चला जाता है। मां से बोलता है क्या हो गया है। सरिता नाराज क्यों हो रही है। बेटा तुझे तो पता ही है कि तेरे पिताजी तुझे एक साल का छोड़कर इस दुनिया से अलविदा कह गए थे। जब से लेकर अब तक मैने तेरे लिए जीवन भर जीतोड़ मेहनत की है। मैने तेरी हर ख्वाहिश पूरी की। अब मैं बूढ़ी हो चुकी हू। साथ में तमाम बीमारियों ने जकड़ना सुरु कर दिया है। बस यही बहू को रास नहीं आ रहा है। क्या मेरा बूढ़ा होना गुना है। बस यही मेरी गलती है। विनय कहता है, मां तुम तो जानती हो मैं तेरे बिना रह नहीं सकता। लेकिन सरिता ने ऐसा बोल दिया है। अब मै क्या करू। मां मुझे माफ कर देना। मै बहुत मजबूर हूं। तुम्हें अब वृद्ध आश्रम जाना पड़ेगा । ये सब सुनकर सुखिया को गहरा सदमा लगता है। और चक्कर खाकर धरती पर गिर जाती हैं। विनय अपनी मां को तुरन्त अस्पताल ले जाता है। डॉक्टरों ने तमाम चैकअप किए। अंत में आकर डॉक्टरों ने जबाव में कहा । विनय तुम्हारी मां याददाश्त खो चुकीं है। अब ये अपनी पिछली जिंदगी भूल चुकीं हैं। तुम इन्हें घर ले जाओ इनकी सेवा करो।
अब सुखिया को किसी जमाने भर का बोध नहीं था। कि कौन उसका बेटा, कौन उसकी बहू है। ना कोई शरीर की फिकर है। अब वो सड़क पर पागलों की तरफ घूमती रहती है। जब वह अपने मौहल्ले की सड़क से गुजरती है। तो कुछ शरारती लोग उससे कपड़े प्रेस कराने, सब्जी, दूध आदि लाने के लिए अपना-अपना काम करवाते रहते है। वो किसी से मना भी नहीं कर पाती है ।
काश आज उसे इतनी समझ होती, तो ये सब ना करना पड़ता । क्या बूढ़ा होना गुना है। ये सब लोग जान लो। दुनियां के सभी मनुष्य जाति बूढ़ा होना निश्चित है। क्या मां होना कोई गुनाह है?
— अवधेश कुमार निषाद मझवार