ऋषि दयानन्द ने ईश्वर के सत्यस्वरूप को स्थापित करने का प्रयास किया
ओ३म्
ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में अविद्या दूर करने सहित अनेक सामाजिक कार्य किये। उनका एक प्रमुख कार्य ईश्वर के नाम पर फैली अविद्या को दूर करना भी था। उनके समय ईश्वर के सत्यस्वरूप व गुण, कर्म व स्वभाव का देश व समाज सहित विश्व को ठीक ठीक बोध नहीं था। ऋषि दयानन्द को किशोरावस्था में ईश्वर के सत्यस्वरूप व उसके गुण, कर्म व स्वभाव को लेकर ही शंकायें हुई थी। इसकी खोज सहित मृत्यु पर विजय पाने के लिए वह अपने पितृ गृह से अपने प्रश्नों के समाधान प्राप्त करने के लिये निकल पड़े थे। शिवरात्रि, 1839 को हुए बोध के लगभग 24 वर्ष बाद उन्होंने वेदज्ञान प्राप्त कर अपने सभी प्रश्नों का उत्तर व समाधान प्राप्त किया था। वह निःशंक एवं निर्भरान्त हो गये थे। विद्या पूरी करने के बाद उन्होंने अपने गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती की प्रेरणा से देश व समाज में फैली अविद्या को दूर करने का मुख्य कार्य किया। इस अविद्या को दूर करने के लिये ही उन्होंने वेद व वैदिक मान्यताओं का देश भर में घूम-घूम कर प्रचार किया। वह जिन वैदिक सिद्धान्तों को मानते थे उनको तर्क एवं युक्तियों सहित प्रस्तुत करते थे और अपने श्रोताओं सहित सभी मत-मतान्तरों के विद्वानों की शंकाओं व प्रश्नों का समाधान करने के लिए तत्पर रहते थे व करते भी थे।
ऋषि दयानन्द मत-पंथ व सम्प्रदायों की तर्क व युक्ति किंवा सत्य विरुद्ध मान्यताओं का वेद के प्रमाणों को प्रस्तुत कर तर्क एवं युक्ति सहित समीक्षा, परीक्षा व खण्डन भी करते थे। वह मानते थे कि मनुष्य जाति की उन्नति केवल और केवल सत्य मान्यताओं को जानने, मानने व धारण करने से होती है। इसी कारण उन्होंने मनुष्य के जीवन में होने वाली सभी शंकाओं का निवारण करने के लिए जो ग्रन्थ लिखा, उसका नाम ‘सत्यार्थप्रकाश’ रखा। सत्यार्थप्रकाश से मनुष्य के मन में समय समय पर उठने वाले सभी प्रश्नों का तर्क एवं युक्तिसंगत उत्तर मिलता है। ऋषि दयानन्द ने ईश्वर के अस्तित्व को भी तर्क की कसौटी पर कस कर प्रस्तुत किया। उनके द्वारा प्रस्तुत ईश्वर का सत्यस्वरूप ही वेदों में वर्णित है और वही ईश्वर का सत्यस्वरूप है। ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव भी ऋषि दयानन्द ने वेदों व वेदों पर ऋषियों के व्याख्यान ग्रन्थों उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति आदि के आधार पर ही प्रस्तुत किये हैं। ऋषि दयानन्द का सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ पढ़ने से किसी भी निष्पक्ष व पूर्वाग्रहों से युक्त मनुष्य की पूर्ण सन्तुष्टि हो जाती है और वह निःशंक व निभ्र्रान्त होकर उनका अनुयायी व ईश्वर भक्त बन जाता है। इसी कारण करोड़ों निष्पक्ष व पूर्वाग्रहों से मुक्त लोग उनके वैदिक विचारों व सिद्धान्तों के अनुयायी बने हैं और अपने ज्ञान, लेख, विचारों व आचरणों से वेदों का प्रचार करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं।
ऋषि दयानन्द ने ईश्वर के सत्यस्वरूप को आर्यसमाज के दूसरे नियम सहित अपने अनेक ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर प्रस्तुत किया है। उनके ऋग्वेदभाष्य आंशिक तथा यजुर्वेदभाष्य संपूर्ण में भी स्थान-स्थान पर ईश्वर के सत्यस्वरूप व गुण, कर्म व स्वभावों का वर्णन हुआ है। इनका अध्ययन करने से मनुष्य की अविद्या दूर होती है। जो परिणाम इन ग्रन्थों के अध्ययन से प्राप्त होता है वह अन्य मत-मतान्तरों के ग्रन्थों से प्राप्त नहीं होता। आर्यसमाज के दूसरे नियम में ऋषि दयानन्द ने ईश्वर का सत्यस्वरूप प्रस्तुत किया है। उन्होंने लिखा है ‘ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। (सब मनुष्यों को) उसी की उपासना करनी योग्य (आवश्यक एवं अनिवार्य) है।’ ईश्वर के इस स्वरूप को माने और उसी की उपासना किये बिना मनुष्य का जीवन कृतकार्य व सफल नहीं होता। ईश्वर का सत्यस्वरूप जान लेने व उसी के अनुसार उपासना, आचार व विचार बनाने से ही मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह चार पुरुषार्थ ही मनुष्य जीवन के ध्येय व लक्ष्य हैं। इनकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने से मनुष्य का परजन्म अर्थात् हमारी मृत्यु के बाद का जन्म व पुनर्जन्म भी उत्तम योनि व परिवेश में प्राप्त होता है जहां मनुष्य को सुख व उत्तम परिस्थितियां प्राप्त होती हैं। अतः ईश्वर का शुद्ध स्वरूप जो वेदादि साहित्य में उपलब्ध होता है, उसे जानने व धारण करने का प्रत्येक मनुष्य को प्रयत्न करना चाहिये।
ऋषि दयानन्द ने ईश्वर का सत्यस्वरूप अपने लघु ग्रन्थ ‘आर्योद्देश्यरत्नमाला’ में भी परिभाषित किया है। वहां प्रस्तुत ईश्वर का सत्यस्वरूप भी आर्यसमाज के नियम के अनुरूप व अनुकूल है। इस लधु ग्रन्थ में ऋषि लिखते हैं ‘ईश्वर जिसके गुण-कर्म-स्वभाव और स्वरूप सत्य ही हैं, जो केवल चेतनमात्र वस्तु तथा जो एक, अद्वितीय, सर्वशक्तिमान, निराकार, सर्वत्र, व्यापक, अनादि और अनन्त सत्य गुणवाला है, और जिसका स्वभाव अविनाशी, ज्ञानी, आनन्दी, शुद्ध, न्यायकारी, दयालु और अजन्मादि है, जिसका कर्म जगत् की उत्पत्ति, पालन और विनाश करना तथा सब जीवों को पाप-पुण्य के फल ठीक-ठीक पहुंचाना है, उसको ‘ईश्वर’ कहते हैं।’ इस व्याख्यान में ऋषि दयानन्द ने बताया है कि ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव तथा स्वरूप सत्य ही हैं। इसका अर्थ है कि ईश्वर काल्पनिक सत्ता नहीं है अपितु ईश्वर एक सत्य व यथार्थ सत्ता है। ईश्वर केवल चेतन मात्र सत्ता व वस्तु है। चेतन मात्र का अर्थ है वह जड़ता के पदार्थों यथा प्रकृति व प्रकृति के विकारों पृथिवी, अग्नि, वायु आदि से संयुक्त नहीं है। वह एकमात्र निरवयव चेतन सत्ता है। वह ईश्वर प्रकृति व प्रकृति के विकारों, इस जगत व सृष्टि से सर्वथा व पूर्णतः पृथक सत्ता है। ऋषि दयानन्द ने इस परिभाषा में ईश्वर को अद्वितीय बताया है। इसका अर्थ है कि ईश्वर के समान संसार में कोई चेतन व जड़ देवता नहीं है। वह सबसे भिन्न एक अद्वितीय चेतनमात्र सत्ता है। ईश्वर में अन्य सभी गुण जो ऋषि दयानन्द ने कहे हैं, वह भी घटते हैं। इनका अनुभव, ज्ञान व इनका रहस्य चिन्तन, मनन व विवेक करने से ज्ञात हो जाता है। ऋषि दयानन्द द्वारा प्रदत्त इस परिभाषा का भी मनन करने से मनुष्य ईश्वर के सत्यस्वरूप के विषय में पूर्णतया निःशंक एवं निर्भरान्त हो जाता है। इतने कम शब्दों में आर्यभाषा हिन्दी के माध्यम से जन सामान्य को ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव व सत्यस्वरूप को समझा देने का कारण हमें ऋषि दयानन्द का ऋषि होना लगता है।
ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में लिखे अपने स्वमन्तव्यों में भी ईश्वर का चित्रण किया है। यहां लिखे उनके शब्द भी उपर्युक्त दोनों कथनों के पूर्णतया अनुकूल हैं, मात्र शब्द व वाक्यों में किंचित अन्तर है। वह लिखते हैं ‘ईश्वर कि जिस के ब्रह्म परमात्मादि नाम हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है, जिस के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं। जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान्, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्ता, धर्ता, हर्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है, उसी को परमेश्वर मानता हूं।’ इन वचनों को पढ़कर भी ईश्वर के सत्यस्वरूप की पुष्टि होती है। इस प्रकार हमें ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों में ईश्वर का सत्यस्वरूप प्राप्त होता है। सभी पाठकों को ऋषि दयानन्द के सभी ग्रन्थों का अध्ययन कर ईश्वर विषयक अपने ज्ञान को बढ़ाना चाहिये तथा उसी ज्ञान से ईश्वर की उपासना कर उससे होने वाले धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सहित सुख व जीवन उन्नति के लाभों को प्राप्त करना चाहिये। सृष्टि के आदि काल से हमारे सभी पूर्वज ईश्वर के इसी सत्यस्वरूप को मानते आयें हैं। कभी किसी को ईश्वर के सत्यस्वरूप में भ्रान्ति नहीं हुई थी। हमारे सभी ऋषि मुनि तथा महापुरुष राम, कृष्ण, चाणक्य आदि भी ईश्वर के इसी सत्यस्वरूप को मानते थे। अतः हमें भी सत्यपथानुगामी होते हुए उन्हीं के मार्ग पर चलना चाहिये।
ऋषि दयानन्द ने संसार से अविद्या को दूर किया था। उन्होंने वेदों के आधार पर मनुष्य जीवन व्यतीत करने की सम्पूर्ण जीवन शैली प्रस्तुत की है। मनुष्य को प्रतिदिन पंचमहायज्ञ वा पांच कर्तव्यों का पालन करते हुए जीवन व्यतीत करना चाहिये। ऋषि दयानन्द ने अपने समय में सभी अन्धविश्वासों एवं पाखण्डों का भी तर्क एवं युक्ति पूर्वक खण्डन किया था। उन्होंने सभी मनुष्यों, स्त्री, पुरुषों व शूद्रों आदि, को वेद पढ़ने व उसे जीवन में धारण करने का उपदेश दिया। वह गोरक्षक थे एवं गोपालन के पक्षधर थे। शिक्षा जगत को भी उनकी अनेक महत्वपूर्ण देने हैं। उनके विचारों से प्रभावित होकर उनके शिष्यों व अनुयायियों ने देश भर में गुरुकुल तथा दयानन्द ऐंग्लो वैदिक स्कूल व कालेज खोले। देश की आजादी का मूल मन्त्र भी ऋषि दयानन्द ने ही दिया था। आजादी के आन्दोलन में सक्रिय कार्यकर्ता व आन्दोलनकारी भी सबसे अधिक आर्यसमाज के संगठन से ही प्राप्त हुए थे। बाल विवाह को समाप्त करने तथा कम आयु की विधवाओं का पुनर्विवाह प्रचलित करने का कार्य भी आर्यसमाज की विचारधारा से हुआ है। ईश्वर, वेद, देश, माता-पिता, आचार्य तथा गो भक्ति आदि आर्यसमाज के अनुयायियों को घुटी में पिलाई जाती है। आर्यसमाज संस्कृत व हिन्दी को अपनाने का पक्षधर है। इसी से देश की एकता दृण होती है। ऋषि दयानन्द ने ईश्वर के सत्यस्वरूप का प्रचार कर विश्व में एक सात्विक क्रान्ति को जन्म दिया था। उनका कार्य अभी अधुरा है। संसार का प्रत्येक मनुष्य ईश्वर के सत्यस्वरूप को जाने, उसी से ईश्वर की उपासना करे, विश्व में वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना विकसित हो, पूरे विश्व में शान्ति हो, यह ऋषि दयानन्द को अभीष्ट था। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य