हास्य व्यंग्य

इस बरस कौन रंग चढ़ाऊँ बैरी सजनवा

मुझे मालूम है कि तू बहुत रंग-रंगीला हो चला है।जब से इस मूई राजनीति का तुझे चस्का लगा है तब से तुझे होली के रंग से ज्यादा चुनाव के रंग भाने लगे हैं।मुझे मालूम है कि जब तू हमारे साथ ही था तब रंगों से बहुत दूर भागता था ,तुझे रंग काटने को दौड़ते थे।तब तुझे हर रंग फीके लगते थे,तू रंगों से डरकर मुँह छुपाता फिरता था और अब हाल ये है कि तू खुद ही राजनीति के रंग में केवल रंगा ही नहीं है बल्कि डूब सा गया है। लगता है कि अब तुझ पर दूसरा कोई रंग चढ़ ही नहीं पा रहा है।

पहले तो होली की हुड़दंग से भी तू घबराता था जबकि उस हुडदंग का अपना अलग ही मजा है,मस्ती है लेकिन अब तू चुनावी रंग जमाने की खातिर जो हुडदंग करता-करवाता है उससे तो मेरा दिन का चैन और रातों की नींद हराम हो जाती है किन्तु तुझे जरा भी तरस नहीं आता है।अब तो तू खुद ही मुझे रिझाने का कोई मौका नहीं छोड़ता है,हर तरह के रंगों को आजमा लेता है। तेरी रंगीली छवि से कौन वाकिफ नहीं है।तू चाहता है कि मैं बस तेरे ही रंग में रंग जाऊं और मीरा के प्रेम रंग की तरह तेरे चुनावी रंग में ही सदैव-सदैव के लिए डूब जाऊं। लेकिन तेरी यह चाहत सिर्फ और सिर्फ चुनावी मौसम तक ही तो सीमित रहती है। बाकी समय तो तू मुझे मेरे हाल पर बेहाल छोड़ जाता है फिर तुझे अगले चुनाव तक कहाँ कुछ याद रहता है कि मैं किस हाल में हूँ।

चुनाव के समय तो तू किसिम किसिम के वादों-आश्वासनों की पिचकारियाँ को साथ लेकर घुमता रहता है ,अपनी गलबहियाँ डालकर मुझे बहलाता है,फुसलाता है,ललचाता है और मैं लोभ में आकर बहक जाती हूँ,फिसल जाती हूँ तेरी लोकलुभावन मुद्राएँ देखकर! और हाँ,तब मुझे भी लगता है कि मैं तेरे रंग में रंग गई हूँ।तेरे लिए तो चुनाव का मौसम ही फाग है। तू चुनावी फाग ही तो अलापता है।जिस तरह से फाग की मस्ती में मैं प्रेम राग अलापती हूँ,तू चुनाव की मस्ती में सत्ता राग अलापने बैठ जाता है।मैं तो इधर होली में बुराइयों को होलिका के साथ दहन करने और प्रेम-भाईचारा बांटने का संदेश देती हूँ और एक तू है जो चुनाव में आपसी मनमुटाव और भेदभाव के बीज बोकर बुराइयों के संदेश बांटता फिरता है।

मैंने तो तुझपर सतरंगी रंगों की बौछार कर तुझे अपने रंग में रंगना चाहा लेकिन एक तू है जो कलुषित मन लिए हुए अपने हाथों में इन्द्रधनुषी पिचकारी का दिखावा कर मुझे श्याम रंग की चाशनी से बदरंग करता चला आ रहा है और फिर चहुंओर कालिमा बिछाकर चल देता है।

कैसा छलिया हो गया है रे तू।अपनो के बीच से निकलकर भी तो तू अपना नहीं रह गया है।कितना छलावा करता है,लाल-हरे-पीले रंग दिखाकर अपने भीतर छुपाए काले रंग से चुनावी होली खेलने की तेरी कोशिश।मुझे सब समझ में आता है लेकिन क्या करूँ, तेरे छल-प्रपंच हैं ही ऐसे कि तेरा कालाकूट भीतरी रंग भी चुनावी मौसम में मुझे इन्द्रधनुषी रंग दिखाई देने लगता है और मैं तेरे बहकावे में आ जाती हूँ। क्या तू कोई जादूगर हो गया है।कहीं तुने बंगाल का काला जादू तो नहीं सीख लिया है! मैं समझ नहीं पा रही हूँ कि ऐसा भला क्यों हो जाता है।मेरी आँखों के सामने ऐसे जाले क्यों पड़ जाते हैं और मैं क्यों ऐसे सम्मोहित हो जाती हूँ।क्या तुने सम्मोहन विद्या भी सीख ली है या फिर इस चुनावी रंग में ही सम्मोहन शक्ति विद्यमान है।

एक बात और,क्या तुझे होली पर निकलने वाली रंग बिखेरती-रंग उड़ाती उल्लास बढ़ाती गेर और तेरी चुनावी शोर मचाती रंगहीन रैली का अंतर नहीं मालूम।मैं तो कहती हूँ कि तू फिर वापस आकर मुझमें यानी अपनी जनता में समा जा।आ फिर वही फाल्गुनी होली का जश्न मनाएँ। आखिर जनता होने और कहलाने में तुझे क्या परेशानी है।तेरा दर्जा कम तो नहीं होगा। तू चुनावी होली से सौहार्द बिगाड़ने की सीख देने के बजाए फाग की होली के रंग से सौहार्द कायम करने का माहौल बना।अभी तो मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि इस बरस कौन रंग चढ़ाऊँ बैरी सजनवा तुझपर कि तू तू न रहे और बस मुझमें समाकर आम जन हो जाए!

*डॉ. प्रदीप उपाध्याय

जन्म दिनांक-21:07:1957 जन्म स्थान-झाबुआ,म.प्र. संप्रति-म.प्र.वित्त सेवा में अतिरिक्त संचालक तथा उपसचिव,वित्त विभाग,म.प्र.शासन में रहकर विगत वर्ष स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ग्रहण की। वर्ष 1975 से सतत रूप से विविध विधाओं में लेखन। वर्तमान में मुख्य रुप से व्यंग्य विधा तथा सामाजिक, राजनीतिक विषयों पर लेखन कार्य। देश के प्रमुख समाचार पत्र-पत्रिकाओं में सतत रूप से प्रकाशन। वर्ष 2009 में एक व्यंग्य संकलन ”मौसमी भावनाऐं” प्रकाशित तथा दूसरा प्रकाशनाधीन।वर्ष 2011-2012 में कला मन्दिर, भोपाल द्वारा गद्य लेखन के क्षेत्र में पवैया सम्मान से सम्मानित। पता- 16, अम्बिका भवन, बाबुजी की कोठी, उपाध्याय नगर, मेंढ़की रोड़, देवास,म.प्र. मो 9425030009