कैरियर के साथ- साथ संस्कारों की भी हो बात
वर्तमान परिद्रश्य में जीवन मूल्यों को जीने वाले लोग बहुत विरले ही मिलते हैं। भारतीय जीवन में संस्कार की बहुत सी बातें हैं जैसे ‘मातृवत् परदारेषु’, अर्थात् पराई स्त्री को माँ के समान समझो। एक संस्कार है ‘परद्रव्याणि लोष्ठवत्’ अर्थात् दूसरे के धन को मिट्टी के समान समझो। एक अन्य संस्कार है ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ सभी को अपने जैसा या अपनी आत्मा से जुड़ा समझो। हम देखते हैं कि हमारी इन विशेषताओं ने भारतीय समाज-जीवन को एक ऊँचाई प्रदान की। आजकल का जीवन भले ही कुछ अलग हो गया है परन्तु लगभग १००० साल पहले की हमारी संस्कृति का भारत में आनेवाले ज्यादातर विदेशी समाज के लेखकों ने जो वर्णन किया है, अगर आज आप पढे़गे तो पाएंगे कि यह सारी विशेषताएं उन्होंने जीती-जागते रूप में हमारे समाज में उन्होंने देखीं। हमारे समाज में विद्यमान संस्कारों- यथा अतिथि-सत्कार, दया , करूणा, न्याय, नैतिकता आदि का रूप जैसा उन्होंने देखा, वैसा वर्णन किया। अतः यदि हम पुनः वैसा ही समाज जीवन बनाना चाहते हैं तो समाज में संस्कृति बोध आवश्यक है। यह जो संस्कृति बोध है समाज के अंदर उसे पीढी दर पीढी स्थानांतरित अथवा हस्तांतरित करने का माध्यम अनेक प्रकार की कलाएं है। जिस प्रकार सामान्यतः अक्षरज्ञान की जो शिक्षा होती है, उसका सम्बंध बुद्धि से होता है, कला का संबंध हृदय से होता है। इस प्रकार बुद्धि और हृदय का परिष्कार करने के लिए हमारे यहां पर साहित्य है, संगीत है, कला है इनको जीवन में बहुत महत्व दिया गया है। संस्कृत में एक सुभाषित है- ‘‘साहित्य, संगीत, कला विहिनः साक्षात पशु पुच्छ विषाणहीनः’’ अर्थात् जिस मनुष्य के जीवन में न तो साहित्य है न कला है न संगीत है न उसकी रूचि है वह मनुष्य तो है परन्तु कैसा है वह बिना पूंछ के पशु जैसा है। जब साहित्य कहेंगे तो उसमें कथा है, कहानी है, कविता है, उपन्यास है, अर्थात् कई तरह से विभिन्न रूपों में विचार और भावना की अभिव्यक्ति हुई है। जब हम संगीत कहेंगे तो स्वरों की दुनिया है वह मुंह से गाए हुए रागों की भी एक दुनिया है और यन्त्रों के माध्यम से स्वरों के जो स्पन्दन निकलते हैं उसकी भी एक दुनिया है उनके अपने-अपने अन्तर हैं।
वर्तमान समय में भौतिक जीवन शैली को देखते हुए अच्छे कैरियर की तलाश हेतु हर माता-पिता अपने बच्चों को अच्छे से अच्छे विद्यालय में प्रवेश कराने का स्वप्न सँजोते हैं। आज कल के बच्चे भी अपनी उम्र से कहीं ज्यादा कैरियर के प्रति बचपन से ही जागरूक रहते हैं। यह बहुत अच्छी बात है, और अविभावक को भी इस दिशा में उनका पूरा सहयोग करना चाहिये। वर्तमान समय में अविभावक अपने इस स्वप्न को पूरा करते हुए दिनभर जीतोड़ मेहनत करके वो पाई-पाई बचाकर अपने बच्चों के विद्यालय का शुल्क जुटाते हैं। बच्चे को अच्छे विद्यालय
में प्रवेश दिलवाने के बाद अपने कर्त्तव्यों से इतिश्री करते हुए अविभावक बच्चों को संस्कारवान, जिम्मेदार व सभ्य नागरिक बनाने की सारी जिम्मेदारियाँ शिक्षकों पर थोप देते हैं। लेकिन यह गलत है अविभावकों को चाहिए की वह भी अपने व्यस्ततम जीवन से समय निकाल कर बच्चों के साथ बिताएं। यह कहा भी गया है कि बच्चे की प्रथम गुरु मां व पाठशाला उसका परिवार होता है। बच्चा जो कुछ भी सीखता है, वो अपने परिवार, परिवेश व संगति से सीखता है। बच्चों को सुधारने या बिगाड़ने में उसके माता-पिता का भी उतना ही हाथ होता है, जितना कि उसके शिक्षकों व सहपाठियों का। बच्चों को संस्कारवान बनाने की सबसे बड़ी व महत्वपूर्ण जिम्मेदारी माता-पिता की है। निश्चित तौर पर कुछ हद तक यह जिम्मेदारी शिक्षकों की भी है परंतु विडंबना यह है कि वर्तमान में बच्चों को विद्यालय व परिवार दोनों ही जगह संस्कार नही मिल पा रहे हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि बच्चा विद्यालय में तो केवल ५ से ६ घंटे बिताता है परंतु अपना शेष समय अपने घर पर बिताता है। ऐसे में माता-पिता व शिक्षक दोनों की बराबरी की जिम्मेदारी होती है कि वे अपने बच्चों को संस्कार व शिष्टाचार का सबक सिखाएँ। अकेले शिक्षकों या विद्यालय प्रशासन पर सारी जिम्मेदारियाँ देना उचित नही है। बाल मन पर जो बातें अंकित हो जाती है वह जीवन पर्यंत जीवित रहती है। इंसान की पहचान उसके संस्कारों से बनती है। संस्कार उसके समूचे जीवन को व्याख्यायित करते हैं। संस्कार हमारी जीवनी शक्ति है। उच्च संस्कार ही मानव को महामानव बनाते हैं। अमूल्य धरोहर है, मनुष्य के पास यही एक ऐसा धन है, जो व्यक्ति को इज्जत से जीना सिखाता है और यही सुखी परिवार का आधार है। वास्तव में बच्चे तो कच्चे घड़े के समान होते हैं उन्हें आप जैसे आकार में ढालेंगे वे उसी आकार में ढल जाएंगे। इस लिए आवश्यक है कि माता-पिता अपने बच्चों को सही संस्कार दें और सुंदर समाज व राष्ट्र के निर्माण में अपनी भूमिका अदा करें। किसी कवि ने कहा भी है-
निर्माणों के पावन युग में हम चरित्र निर्माण न भूलें
स्वार्थ साधना की आंधी में वसुधा का कल्याण न भूलें
शील विनय आदर्श श्रेष्ठता तार बिना झंकार नही है
शिक्षा क्या स्वर साध सकेगी यदि नैतिक आधार नहीं है
कीर्ति कौमुदी की गरिमा में संस्कृति का सम्मान न भूले।
निर्माणों के पावन…
संस्कारित जीवन ही समाज में शांति की स्थापना कर सकता है। संस्कार पोषित शिक्षा केन्द्रों का अभाव विश्व मानव मंगल के स्वप्न को साकार नहीं कर सकता। हमारे संस्कारों के कारण ही अपनी सर्वत्र पहचान बनायी है। भारतीय दार्शनिकों, संतों, साहित्यकारों, नीतिज्ञों और वैज्ञानिकों के विचारों को पढ़कर जीवन में बहुत लाभ मिलता है। मौर्यकाल में जहां नीतिज्ञों में चाणक्य का नाम विख्यात था, वहीं दार्शनिकों और मनोवैज्ञानिकों में पाणिनी और पतंजलि का नाम सम्मान के साथ लिया जाता था। वैज्ञानिकों में पिङ्गल, वाग्भट्ट, जीवक आदि महान वैज्ञानिक थे। हालांकि इसके पूर्व महाभारत काल में तो और भी महानतम लोग थे। धर्म, ज्ञान और विज्ञान के मामले में भारत से ज्यादा समृद्धशाली देश कोई दूसरा नहीं। भारत ने दुनिया को सभी तरह का ज्ञान दिया और आज उस ज्ञान के कारण पश्चिम और चीन जगत के लोग अपना जीवनस्तर सुधारने में लगे हैं। यह जो प्रसिद्धि भारत को मिली तो कहीं न कहीं श्रेष्ठ महापुरूषों के उत्तम विचारों संस्कारित जीवन शैली के कारण ही मिले हैं।
इस सब के साथ ही अच्छे कैरियर की ओर भी अपना ध्यान देना चाहिए अच्छी शिक्षा कहां से मिल सकती है सब प्रकार से उसे अर्जित करने का प्रयास करना चाहिए। विषय का चयन भविष्य की आवश्यकता के आधार पर करना चाहिये क्योंकि आप जिस विषय का चयन करेंगे उस पर आपको अपने जीवन की रीति-नीति तय कर चलना है और अपने कैरियर को बनाना है। केवल अपने पाठ्यक्रम की तैयारी ही नहीं करनी चाहिये अपितु उसके साथ कोई भी एक लक्ष्य रखना चाहिये। उच्च सफलता प्राप्त करने के लिए अपने मन, मस्तिष्क को समय, काल, परिस्थितियों के अनुरूप बनाना चाहिये। अपनी योग्यता को लगातार बढाना चाहिये जिससे प्रतियोगी परीक्षाओं में उच्च अंक प्राप्त कर सकें। हमे कहां से तैयारी करनी है, कौन सी पुस्तके पढ़नी हैं हमारी रुचि का विषय क्या है इन सब पर ध्यान रखकर अपने को उस अनुरूप तैयार करना चाहिए। स्वामी विवेकानंद जी ने कहा है-“उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।” तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाये। सफलता के तीन आवश्यक अंग हैं- शुद्धता, धैर्य और दृढ़ता लेकिन सबसे आवश्यक जो है वह है लगन। ऐसी शिक्षा जिससे चरित्र निर्माण हो, मानसिक शक्ति का निर्माण हो, ज्ञान का विस्तार हो और हम खुद अपने पैरों पर खड़े हो सक्षम बन जाएं। गीत की इन पंक्तियों को अपना जीवन धेय्य मानकर आगे बढ़ें-
पथ का अन्तिम लक्ष्य नहीं है सिंहासन चढ़ते जाना।
सब समाज को लिये साथ में आगे है बढ़ते जाना॥
इतना आगे इतना आगे जिसका कोई छोर नही।
जहाँ पूर्णता मर्यादा हो सीमाओं की डोर नहीं।।
सभी दिशाएँ मिल जाती हैं उस अनन्त नभ को पाना॥
पथ का अंतिम….