ग़ज़ल
इस अंधेरे के घर को तू वीरान कर
नूर बनकर ज़माने पे एहसान कर।
बात बनती नज़र आएगी फिर यहाँ
अपनी शतों को थोडा तू आसान कर।
अश्क आाँखों में आकर करें चुग़लियाँ
अब छुपाने का इनको तू सामान कर।
अनुभवों को समेटे पडे खाट पर,
इन बुज़ुर्गों का थोडा तो सम्मान कर।
हों निभाने मुहब्बत के रिश्ते अगर
अपने दिल को तू बच्चों सा नादान कर ।