ग़ज़ल
उमीद के रखें हम दिल में यूँ सजा के चराग़,
हवा में जैसे रखे जाते हैं जला के चराग़।
सभी के हक़ में दुआ आइए यही मांगे,
वबा ये अब न बुझाए किसी बक़ा के चराग़।
इसी के रहम-ओ-करम पर है ज़िंदगी इनकी,
जलें-बुझें कहाँ मर्ज़ी बिना हवा के चराग़।
हो अज़्म दिलमें जो सच्चातो मुश्किलें कैसी,
सिखा रहा है अँधेरों में जगमगा के चराग़।
जहाँ में मंज़िलें ख़ुद ही तलाशी जाती हैं,
बड़े नसीब से मिलते हैं रहनुमा के चराग़।
हमें हो तीरगी का ख़ौफ़ किस लिए ऐ रब,
हर एक सू जो हैं रौशन तेरी रज़ा के चराग़।
चराग़ वक़्त से पहले कहीं बुझे न कोई,
की आरज़ू यही दरियामें कुछ बहाके चराग़।
— अंजुमन मंसूरी ‘आरज़ू’