मुमकिन नहीं
इस जहाँ में कोई माँ सा पारसा मुमकिन नहीं,
चाहे जो बेलौस ऐसा आश्ना मुमकिन नहीं।
रूठ जाए माँ तो कुछ कहती नहीं रोती है बस,
माँ के जैसा भी हो कोई दूसरा मुमकिन नहीं।
माँ बिना दीपावली के दीप भी हैं बेज़िया,
ईद की रौनक़ ये माँ बिन दे मज़ा मुमकिन नहीं।
हर घड़ी साये सा जब है साथ में माँ का वजूद,
मुझको तन्हाई सताये बाख़ुदा मुमकिन नहीं।
माँकी ख़िदमत हम करें ता-उम्र तो भी कम ही है,
माँ का एहसाँ उतरे ऐसा रास्ता मुमकिन नहीं।
माँ दुआ-ए-नूर दम करती है मुझ पर तो भला,
मेरी राहों में अँधेरा हो घना मुमकिन नहीं।
मुस्कुराहट मेरे लब की है जो माँ की ‘आरज़ू’,
मेरे अश्क़ों से हो उनका सामना मुमकिन नहीं।
— अंजुमन मंसूरी ‘आरज़ू’