संस्मरण

संस्मरण – स्वतंत्रता का आनंद

राजस्थान के ग्रामीण परिवेश में केलू से आच्छादित घर में मेरा जन्म हुआ। घर की दीवारें और आंगन गोबर-मिट्टी (गारे) से पुते हुए रहते थे। रसोई घर (रसोड़े) का आंगन भी गारे से पुता हुआ था। मेरी माँ उमरावदेवी धींग (बाईजी) यतनापूर्वक उसे साफ-सुथरा रखती थीं। रसोड़े के एक कोने में मिट्टी का चूल्हा था, जिसमें ईंधन के लिए जलाऊ लकड़ी और छाणों (गोबर के कण्डों) का उपयोग किया जाता था। वहीं एक-दो समतल पत्थरों से चौका बना रखा था। बाईजी नीचे बैठकर ही मिट्टी की केलड़ी में स्वादिष्ट रोटियाँ बनाती थीं। सामने परात में गूंथा हुआ आटा होता था। गोरैया (चरकली या चिड़िया) आकर गूंथे हुए आटे में निडर होकर चोंचें मारतीं और चहकती हुई अपना आहार करती। बाईजी जब गूंथे हुए आटे को भीगे हुए गरणे (पानी छानने का कपड़ा) से ढँककर इधर-उधर के दूसरे काम निपटाती, तब भी गोरैया गरणे के सिरे को ऊपर करके आटा चुरा ले जाती। गोरैया की यह शरारत बाईजी को अच्छी लगती और हम भाई-बहिनों को भी।
जब रोटियाँ बन रही होती थीं, तब कुछ गोरैया उड़-उड़कर बारी-बारी से बाईजी के चौके में चली आती थीं। पास ही हम भाई-बहिन रोटी खा रहे होते थे। बाईजी के कहने पर रोटी के छोटे-छोटे टुकड़े गोरैया की ओर फेंक देते। गोरैया को तो मजा आ जाता। वे खुश होकर फुदकती हुई रोटी के टुकड़े अपनी चोंच में पकड़ लेतीं। कोई वहीं बैठी-बैठी अपनी रोटी खाती, तो कोई दूर जाकर; तो कोई घोंसले में प्रतीक्षारत अपने बच्चों के लिए रोटी ले जाती। बाँटकर खाने का वैसा आनन्द तो किसी पाँच सितारा होटल में भी नामुमकिन है।
पुराने घरों में ऐसे स्थान सुलभ होते थे, जहाँ गोरैया अपना घोंसला बना सके। गोरैया और कबूतर, मानव-आवासों के भीतर या आसपास कोई उपयुक्त स्थान देखकर अपना नीड़ सदियों से बनाते आ रहे हैं। मेरे घर में भी और घर के आसपास गोरैया के घोंसले हुआ करते थे। दीपावली या अन्य दिनों में सफाई करते समय बाईजी और हम बच्चे इस बात का ध्यान रखते थे कि गोरैया का घोंसला नहीं टूटे। बाईजी कहा करती थीं कि घोंसले ही पक्षियों के घर होते हैं, इन्हें उजाड़ने से भयंकर पाप लगता है। सह-अस्तित्व और जीवरक्षा की ऐसी जीवन्त शिक्षा और कहाँ मिल सकती थी?
इधर, एक सुरक्षित चबूतरे पर चिड़िया के लिए चीणा तथा छोटे अनाज के दाने डाले जाते थे। वहाँ गोरैया सहित दो-चार प्रजातियों की सैकड़ों की संख्या में चिड़ियाँ आती थीं। चतुर चिड़ियाँ अपनी चोंच से चीणा का छिलका उतारकर चीणा खाती थीं। वर्षा ऋतु में चिड़ियाँ न जाने कहाँ से अपने पंख रंग लेती थीं। ऐसी रंग-बिरंगी चहचहाती चिड़ियों को एक साथ दाना चुगते देख हमारा मन नहीं भरता था। गाँव की नीरवता को पक्षियों की कलरव जब भंग करती थी तो कोई व्यवधान नहीं महसूस होता था। अपितु ऐसा लगता था, मानो प्रकृति अपना गीत-संगीत गाकर वातावरण में रस घोल रही है।
ये सारे दृश्य मुझे उस समय तो अच्छे लगते ही थे और अब, जब वो बीते दिन याद करता हूँ तो मेरे स्मृति-लोक में उस दृश्यों की सुन्दरता कई गुना बढ़ जाती है। आज के बालक चिड़ियों को अपनी पाठ्य पुस्तकों में देखते हैं। उन्हें देखकर रंग-बिरंगी चिड़ियों के चित्र भी बना लेते हैं। लेकिन चिड़ियों की वह असली व लम्बी उड़ान, मनमोहक अठखेलियाँ और कर्णप्रिय चहचहाट उन्हें प्रायः देखने-सुनने को नहीं मिलती हैं। चिड़ियों की उड़ान व अठखेलियाँ देखने तथा चहचहाट सुनने के लिए उन्हें चिड़ियाघर जाना पड़ता है। लेकिन, वहाँ पिंजरे में बन्द चिड़ियों की उड़ान का सौन्दर्य तथा चहचहाट का माधुर्य वैसा नहीं होता है, जैसा स्वतंत्र रहने वाली चिड़ियों का होता हैं।
परतंत्रता से सहज विकास अवरुद्ध हो जाता है। स्वतंत्रता का आनन्द कुछ अलग और अनूठा होता है। सभी प्राणियों को स्वतंत्रता प्रिय है। इसलिए किसी भी प्राणी की स्वतंत्रता नहीं छीननी चाहिये।

— डाॅ. दिलीप धींग

डॉ. दिलीप धींग

निदेशक: अंतरराष्ट्रीय प्राकृत अध्ययन व शोध केन्द्र पहली मंजिल, 7, Ayya Mudali Street, Sowcarpet, Chennai – 600001