मातु कमलासिनी, दुष्टता नासनी,
प्रीति संभाषणी, क्यों न हेरी।
दम्भ सेआप्त दिन,काटतेआज गिन,
जिंदगी है कठिन,मातु मेरी।।
चण्ड़िका कालिका,दुष्टजन घालिका,
आमजन पालिका, अब निहारो।
लालअबअक्ष कर,माँ भरो वक्ष डर,
न्याय का लक्ष्य शर, भव्य धारो।।
नेह का पट सिला,द्वेष का सिलसिला,
हो रही क्यों भला, आज देरी।
दम्भ से आप्त दिन,काटते आज गिन,
जिंदगी है कठिन, मातु मेरी।।
मौन हैं कुंज वन,व्याप्त हैं दुख सघन,
हर जगह है घुटन,सत्य हारा।
रक्त रंजित धरा, कुंभ विष से भरा,
शील है अधमरा, बंद कारा।।
सब करें स्मरण,क्यों रुके हैं चरण,
धर्म का स्फुरण, द्वंद्व भेरी।
दम्भ से आप्त दिन,काटते आज गिन,
जिंदगी है कठिन, मातु मेरी।।
बेटियाँ सर्वथा, सह रही हैं व्यथा,
दर्द की हर कथा, बोलती है।
धर्म में बाँटते, जाति में छाँटते,
वोट की नीति फिर,तोलती है।।
मातु अम्बालिके, भद्र हे कालिके,
कब लगेगी यहाँ, मातु फेरी।
दम्भ से आप्त दिन,काटते आज गिन,
जिंदगी है कठिन, मातु मेरी।।
पूछतीं निर्भया, सुप्त है क्यों दया,
लुप्त क्यों हो गया,धर्म प्यारा।
गाँव की हर गली, हो गयी मनचली,
नित्य जातीं छली, बेसहारा।।
बंद सबके अधर,हो गये मंद स्वर,
सोचिए अब ‘भ्रमर’, लाज टेरी।
दम्भ से आप्त दिन,काटते आज गिन,
जिंदगी है कठिन, मातु मेरी।।
— डाॅ. वीरेन्द्र प्रताप सिंह ‘भ्रमर’