थाम लो भुजपाश आकुल आ परिधि में प्राणधन,
ताकते हैं नैन-खंजन आज त्रिज्या व्यास पर।
अधखुले मृदुहास रंजित यदि पुकारें नैन बंकिम,
नैन नैनों से मिलें तकरार करती हों पलक।
कनखियों से कर इशारे तोड़ दे भ्रम जाल को,
छलछलाएँ सोमरस-सी प्रीति का भर दें चषक।।
काट दो तिर्यक भुजाएँ नैन चुम्बित चाप से,
टाँक दूँ अधरोष्ठ बिम्वित सुर्ख स्वर्णिम हास पर।
ताकते हैं नैन खंजन आज त्रिज्या व्यास पर।।
देखती रहती अहर्निश नाथ मैं मनमानियाँ,
प्रीति – पंडुक वक्ष- उन्नत अर्ध अण्डाकार में,
कर रहा घायल हृदय को जन्म लेतीं वेदनाएँ,
बैठ करता है किलोंलें वह प्रणय अभिसार में।।
अर्ध चन्द्राकार नभ में मुस्कुराती चाँदनी,
बिछ गयी है आसवित अर्णव लड़ी अब घास पर।
ताकते हैं नैन-खंजन, आज त्रिज्या व्यास पर।
चूडियाँ , कंगन अबोले मुँह घुमाए हैं खड़े,
हो नहीं सिहरन रही क्या मौन क्यों वस्त्राभरण हैं।
कंचुकी, गलहार, बिँदियाँ, तोड कर तटबंध सारे,
प्यार में विश्वास के क्या भूल जाते वो चरण हैं।।
प्यास की प्यासी घुटन ले मैं खड़ा हूँ द्वार में,
क्यों धडकते हैं नहीं प्रिय अंग अब आभास पर।
ताकते हैं नैन-खंजन,आज त्रिज्या व्यास पर।।
तुम कहो तो चाँदनी में मैं नहाऊँ रात भर,
शर्वरी-सी लोटती लट खोल दूँ प्रियतम घनेरी।
कष्ट है पथ अर्धवृत पर लम्बवत् चलते उबेने,
द्वार, आँगन, सेज तक में छा गयी लट से अँधेरी।।
प्यार में काँटे चुभें तो वह लगें बस फूल से,
हैं निछावर कष्ट सारे सम्मिलन की आस पर,
ताकते हैं नैन-खंजन, आज त्रिज्या व्यास पर।।
कुहकुहाती कोकिलाएँ कल्पना के कंठ से,
पूर्ण करती मान्यताएँ कर रहा नर्तन हृदय।
आज यौवन है प्रफुल्लित भर रहा आकास पेंगें,
ध्वंस कर दीवार लज्जा गुनगुनाता है निलय।।
हम मिलेंगे सुरमयी इस चाँदनी के अंक में,
वृत्त की आवृत्ति पूरी अब ‘भ्रमर’ विश्वास पर।
ताकते हैं नैन-खंजन, आज त्रिज्या व्यास पर।।
— डाॅ. वीरेन्द्र प्रताप सिंह ‘भ्रमर’