मुक्तक/दोहा

आरजू

ताली हवा में अकेले बजाता रहा
याद में तेरी खुद को सताता रहा
ना समझना था तुझको, ना समझ ही सकी
बड़ी शिद्दत से तुझको समझाता रहा
इंतेहा हो गई अब तो लगता यही
ना मैं जानूँ गलत क्या है और क्या सही
दिल की आवाज बस मैं तो सुनता रहा
सोच लेता हूँ बातें मैं कुछ अनकही
तेरी आगोश में यूँ समा जाऊँ मैं
तेरे होठों की लाली चुरा पाऊँ मैं
धड़कनें तेरी मेरी जुगलबंदी करें
साथ तेरे जो कुछ पल जी पाऊँ मैं
तुम ही तुम हो दिलोदिमाग में छाई
जब से हो तुम मेरी जिंदगी में आई
कुछ और न चाहा इक तुम्हारे सिवा
तुम ही हो मेरी कविता, गजल और रुबाई
क्यूँ शमा होती इतनी भी मगरूर है
 जलने को खुद ही परवाना मजबूर है
जाने क्यों उसकी किस्मत में जलना लिखा
जल कर भी तो वो महबूब से दूर है
अब फना हो भी जाऊँ तो कुछ गम नहीं
तू शमा मैं परवाने से कुछ कम नहीं
साथ दम भर भी तेरा मुझे जो मिले
बरसों की जिंदगानी से कुछ कम नहीं
है निगाहों को बस तेरी ही जुस्तजू
मेरे नन्हे से दिल की है ये आरजू
दम जब निकले मेरा तू मेरे पास हो
इल्तिजा है मेरी पूरी कर आरजू

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।