लघुकथा

ईमान

दोपहर का भोजन तैयार कर रसोई से निकली ही थी कि गेट पर किसी के पुकारने की आवाज सुन माथे का पसीना पोछती हुई बाहर आई देखा, बीस-पच्चीस वर्ष का एक युवक सिर पर कपड़ें की गठरी लिए खड़ा है। मुझे देखते ही बोला, “नमस्ते बहन जी! साड़ी ले लीजिए अच्छी-अच्छी साड़ियां है।”

 देखना तो चाह रही थी पर पति के लचं मे आने का समय हो रहा था। उन्हें इस तरह फेरीवालों से कपड़ें वगैरह लेना बिल्कुल पसंद नही। कहते है, ‘खरीदी गई वस्तु यदि खराब निकले तो इन्हें कहां ढुढेगें ? या फिर इनके द्वारा बेची गई वस्तु चोरी की भी हो सकती है!’ घड़ी पर नजर डालते हुए मैने कह दिया,  “नही… भईया, मुझे नही लेनी।”

कहकर मै पलटी ही थी कि पीछे से उसकी दयनीय आवाज कानों मे पड़ी  “बहन जी, पिछले दो दिनों से मेरी एक भी साड़ी नही बिकी, आज मेरी माँ की तबीयत भी खराब है उन्हें दवा चाहिए पर आज अगर मेरी साड़ी नही बिकी तो दवा तो क्या… आज मेरे घर चुल्हा भी नही जल पाएगा। एक साड़ी ले लीजिए मै दाम कम लगा दुंगा।”

  मैने ध्यान से उसकी ओर देखा। उदास चेहरा, सुखे होठ लगता था उसने सुबह से कुछ भी नही खाया। मुझे यूं अपनी ओर देखता पाकर वह साड़ियों की गठरी सिर से उतारने लगा। उसके चेहरे पर ऐसे विनती के भाव उभर आए थे कि मै इनकार न कर सकी। मैने एक साड़ी पसंद कर ली। कीमत तय हुई दो सौ रुपये। चूकि मै जल्दी मे थी पति के आने से पहले खरीदी कर लेना चाह रही थी सो मैने उसे सौ-सौ के दो नोट पकड़ाए और साड़ी को अल्मारी मे रख राहत की सांस ली।

 शाम को किसी काम से मैने पैसे निकाले तो यह देख कर चौक गई कि रखे गये रुपयों मे से पांच सौ के दो नोट गायब थे। मै समझ गई जल्दबाजी मे मैने उस साड़ी वाले को सौ-सौ की जगह पांच सौ के दो नोट दे डाले है। पुरी घटना याद कर मन खिन्नता से भर उठा। आंखो के सामने उसका उदास चेहरा घूम गया। कैसी दयनीय सूरत बना रखी थी, कितने सभ्य तरीक़े से आग्रह कर रहा था। माना जल्दबाजी मे मुझसे गल्ती हो गई।  वह ईमानदार होता तो क्या यूं झट से रुपए लेकर चल देता। रुपयों के जाने से अधिक भावना और विश्वास के छले जाने का दुख हो रहा था।।

 रात ठीक से सो भी नही पाई। सुबह कुछ जल्दी ही उठ गई। अभी नास्ता ही तैयार कर रही थी कि गेट पर किसी की आवाज सुन बाहर आई। देखा तो वही कल वाल लड़का खड़ा था। इस वक्त!…. उसके माथे पर साड़ियों की गठरी भी नही थी। इससे पहले कि मै कुछ कह पाती उसने जेब से आठ सौ रुपए निकाल मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा, “बहन जी आपने कल जो नोट मुझे दिये थे वह सौ-सौ के नही पांच सौ के थे।”

फिर खुश होता हुआ कृतज्ञ आवाज मे बोला, “जानती हैं बहन जी… आपके हाथ की बोहनी मेरे लिए बहुत ही शुभ रही, कल मेरी अच्छी बिक्री हुई। शाम को घर पहुंच कर जब मै दिन भर की बिक्री का हिसाब कर रहा था इन नोटों को देख कर चौक गया। दिमाग पर थोड़ा जोर डालने पर मुझे समझ आ गया कि ये रुपये आप ही ने भुलवश मुझे दिये हैं। उस वक्त मै इतना थक गया था कि आने की मेरी हिम्मत नही हुई। पर आपको अपने रूपयों के और भी काम होगें यह सोचकर सुबह-सुबह चला आया।”

खुशी और आश्चर्य के कारण मै समझ ही नही पा रही थी कि उसे क्या कहूं कि तभी उसने चलने की ईजाजत मांगी, “नमस्ते बहन जी अब मै चलता हुं।”

मैने हड़बड़ा कर कहा, “इतनी सुबह आए हो कुछ नास्ता तो कर लो।”

“नही दीदी! मैने अभी ब्रश भी नही किया, फिर मुझे फेरी के लिए भी निकलना है।”  कह कर वह चला गया।

मै कभी हाथ मे पकड़े उन रूपयों को तो कभी सामने सड़क पर जा रहे उस युवक को देख रही थी जिसकी कमीज इतनी पुरानी हो चुकी थी कि कभी भी फट सकती थी। लगा दुनिया मे लाख बुराईयां सही, सच्चाई और ईमानदारी से पुरी तरह खाली नही हुई है।

—  ऊषा कुशवाहा

ऊषा कुशवाहा

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