कविता

बदलता दस्तूर

बदलता दस्तूर क्या दिल को है मंजूर
पूछता हूं अपने मन से
क्या संस्कृति का बदलाव
या आधुनिकता की छांव
कहीं देकर न जाय घाव
लडखडातें हैं जब ये पांव
पूछता हूं अपने मन से
बदलता दस्तूर क्या दिल को है मंजूर।
इंसा का नही जो धर्म बताते
मन से मैल न कभी हटाते
मजहब की वो दीवार बनाते
राजनीति का जो खेल रचाते
पूछता हूं उस जन जन से
क्या बदलता दस्तूर दिल को है मंजूर।
बन्धु का जो भाव न जाने
विश्वबन्धुत्व लगे दिखलाने
जनमन से खुद को बहलाने
लगे विभिन्न जो रूप बनाने
पूछता हूं उस जीवन से
क्या बदलता दस्तूर दिल को है मंजूर।
आखों के आसूं वो गये नही
भारत सपूत जिसमें रहे नही
भविष्य की चिन्ता करो सही
है स्वर्ग यहीं और नरक यही
अनिल दुःखी है इस मन से
क्या बदलता दस्तूर दिल को है मंजूर।

डॉ. अनिल कुमार

सहायक आचार्य साहित्य विभाग एवं समन्वयक मुक्त स्वाध्यायपीठ, केन्द्रीय संस्कृत विश्वद्यालय श्रीरघुनाथ कीर्ति परिसर, देवप्रयाग, उत्तराखण्ड मो.न. 9968115307