कविता

आग जल रही थी

आग जल रही थी,
धुआ इतरा रहा था।
कुछ सूखे पत्तों की
सरसराहट से,
खुशियां मना रहा था।
हवा चली,तेज़ और तेज़,
धुआ चला जा रहा था।
बादलों की फरमाइश पर,
खुद के सपने
बुना जा रहा था।
आग जल रही थी,
धुआ इतरा रहा था
फिर क्या ?
बंद हो गया सूखे
पत्तों का सरसराना,
पता चला हवा ने
रुख मोड़ लिया था।
बादलों ने गुस्ताखी दिखाई,
उन्हें तो गरज कर
बरस ना ही था।
उन ठंडी ओस की बूंदों से,
धुआ सिमटकर
धुआ रह गया।
अब वह एक पल
भी नहीं इतराया,
बस्स अपनी धुए की
आग में बुझा सा रह गया।
— शीतल श्रीकांत पांढरे

शीतल श्रीकांत पांढरे

पुणे,महाराष्ट्र ७७२७८७१३५९