कविता

घड़ी ( वर्ण पिरामिड )

लो

चले
दूर हो
सब कहाँ ?
ज़रा संभलो
घड़ी है विकट
विरल हुआ जहां ।
————
वो
घड़ी
थी एक
जब सारे
प्रेम रंग में
रंगे झूमते थे
बस खुशहाल थे ..
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द्वेष
इतना
था किसी से
थी बस श्रद्धा
न ही मलाल थे
वो लोग कमाल थे ।
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छा
गईं
हाँ अब
नफ़रतें,
दिलों में बस
नाराज़गी बसी,
लबों पर मुस्कान
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हाँ
घड़ी
बदली
एकदम
आया सैलाब,
घड़ी-दो-घड़ी में
ले-फूँकते हैं प्राण ।
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जो
चाहो
है शेष
घड़ी अभी,
खुद ही खुद
बदलो तो सभी
हाँ मिलेगा आसमाँ ।
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क्यों
घड़ी
करती
टिक-टिक
की आवाज़ है,
वक्त न लौटेगा,
आज ही आग़ाज़ है ।
— भावना अरोड़ा ‘मिलन

भावना अरोड़ा ‘मिलन’

अध्यापिका,लेखिका एवं विचारक निवास- कालकाजी, नई दिल्ली प्रकाशन - * १७ साँझा संग्रह (विविध समाज सुधारक विषय ) * १ एकल पुस्तक काव्य संग्रह ( रोशनी ) २ लघुकथा संग्रह (प्रकाशनाधीन ) भारत के दिल्ली, एम॰पी,॰ उ॰प्र०,पश्चिम बंगाल, आदि कई राज्यों से समाचार पत्रों एवं मेगजिन में समसामयिक लेखों का प्रकाशन जारी ।