कविता
था खड़ा तपता हुआ
देखता बस बार बार
बुझी हुई आंखों की चमक
इस राह कभी, कभी उस राह
ताकता हर चेहरा
उम्मीद और आस से
करता रहता इन्तजार
ना जाने किस विश्वास से
कभी शर्माता कभी सकुचाता
कभी अपनी किस्मत पर पछताता
कुछ आंखें घूरतीं वो बेबसी
ना देखतीं विह्वल दशा
थे शून्य से जो भाव उनको
क्या पता मन की व्यथा
सोचता किस राह जाऊं
किस किस दिशा आवाज अब दूं
चूल्हा घर का राह तकता
किंचित पता क्या हाल उसको
खोजता था मुक्तिदाता
भटका हुआ कोई आ ही जाता
थे सजे कई रंग बिरंगे
देखने में थे अनोखे
मुग्ध कर जाते सभी को
ऐसा रूप भाये सभी को
कैसे वो आवरण वो रखता
सिर्फ रोटी को जो तकता
दुनिया की इस चकाचौंध में
वो खड़ा बुझता रहा
वो खड़ा तपता रहा
वो खड़ा सहता रहा
वो असह्य पीड़ा
जो उसके बच्चों के चेहरे पर थी।