गीत/नवगीत

क्या विधवा को जीने का अधिकार नहीं?

उनके भी सीने में तो दिल धड़कता होगा।
सपने सजाने उनका भी मन करता होगा।
क्या ख़ता उस बेबस,लाचार,बेचारी की?
क्या विधवा को जीने का अधिकार नहीं?
    वह भी तो हमारी तरह इंसान है
    फिर इतना क्यूँ बेबस,बेजान है।
    क्या हुआ जो छीन गया सुहाग?
    पुनः  एक   चुटकी   सिंदूर  का
    तनिक   उसे   अधिकार   नहीं?
क्या विधवा को जीने का अधिकार नहीं?
  जीवन-मृत्यु तो विधि का विधान है
  फिर आखिर हम तो एक इंसान हैं।
  एक दूजे का दर्द समझें हमदर्द बनें
  मानवता में अत्याचार स्वीकार नहीं।
क्या विधवा को जीने का अधिकार नहीं?
समाज के ठेकेदारों ने कितने ज़ुल्मोंसितम ढाये।
     अबला सहर्ष सीने में गरल उतार गईं
    पर,कर सकी उसका प्रतिकार नहीं,तो
   क्या विधवा को जीने का अधिकार नहीं?
— महेन्द्र साहू “खलारीवाला”

महेन्द्र साहू "खलारीवाला"

मैं, एक शिक्षक हूँ। कविता लिखना मुझे अच्छा लगता है। ग्राम-खलारी, पोस्ट-कलंगपुर तहसील-गुंडरदेही, जिला-बालोद (छ ग) पिन कोड-491223 मो नं 9755466917