लघुकथा

नई उछाल

घर की रसोई से भीनी-भीनी ख़ुशबू आ रही थी। राहुल का पढ़ाई में भी मन नहीं लग रहा था। उससे रहा नहीं गया, थोड़ी देर बाद रसोई में प्रवेश करता है और माँ से पूछता है “माँ आज कोई त्योहार है क्या?”

“नहीं तो!” माँ खीर बनाते हुए बोलती हुई…

“फिर तो पक्का कोई घर पर आने वाला है?” राहुल जिज्ञासावश पूछता हुआ!

“कोई नहीं बस पंडित जी को बुलाया है वो आने ही वाले होंगे।” माँ दरवाज़े की ओर निगाह दौड़ाती हुई…

“पंडित जी क्यों माँ?” राहुल के माथे पर लकीरों का झुरमुट खिंच चला…

“बहुत सवाल पूछता है, अरे! आज़ तेरे बाबा जी का श्राद्ध है न!” कह माँ फिर काम में लग जाती हैं…

“माँ क्या यह ख़ुशी की बात है? हमारे बाबा जी अब हमारे बीच नहीं रहे।” राहुल के माथे पर लकीरें और गहरी हो चली थी…

“कैसी बहकी-बहकी बाँतें कर रहा है? भला! किसी के दुनिया से जाने पर ख़ुशी होती है कभी।”

“जब माँ ख़ुशी नहीं होती, तो इतने पकवान क्यों? यह सब तो ख़ुशी में बनाए जाते हैं, ग़म में थोड़े ही न!”

“मैं तो वही कर रही हूँ जो तेरी दादी ने मुझे बताया था।” कह माँ भी सोच में डूब जाती हैं!

राहुल जिसका मन नई उछाल ले रहा था क्योंकि वह किशोरावस्था में जो था, गंभीर मुद्रा में हो वहाँ से चला जाता है। अब न उसे रसोई से कोई ख़ुशबू आ रही थी और न मुँह में पानी! बस आँखें नम होती जा रहीं थीं, बाबा जी के साथ बिताए लम्हें याद करते हुए!

— नूतन गर्ग 

*नूतन गर्ग

दिल्ली निवासी एक मध्यम वर्गीय परिवार से। शिक्षा एम ०ए ,बी०एड०: प्रथम श्रेणी में, लेखन का शौक