बालकहानी : वनदेवी
जैसे ही शिखर को पता चला कि चंदा हथिनी के दल का एक बुजुर्ग हाथी तालगाँव के समीप नर्रा जंगल में अपने दल से बिछुड़ कर इधर-उधर भटक रहा है ; वह तुरंत , ‘ हाथी देखने जा रहा हूँ दीदी… ‘ , कहते हुए विभा के मना करने के बावजूद घर से निकल पड़ा। चूँकि घर में मम्मी-पापा दोनों नहीं थे , तो शिखर को कहीं नहीं जाएगा , सोच कर विभा बोली- ‘ नहीं भाई , मत जाओ। तुम्हारी वजह से मुझे मम्मी-पापा की डाँट पड़ेगी। ‘ पर शिखर विभा की बात को अनसुनी करते हुए जंगल की ओर चला गया , क्योंकि उसने अपने कुछ दोस्तों को जंगल की ओर जाते हुए देखा लिया था।
जंगल में घूसते ही शिखर ने अपने दोस्तों को आवाज लगाई। आवाज भी आती तो , कहाँ से आती ; सब लड़के इधर-उधर जो हो गये थे , क्योंकि बुजुर्ग हाथी गाँव के रास्ते की ओर बढ़ रहा था। हाथी देखने गये थे तो सब , पर हाथी का सामना होते ही सबकी हवा खुल गयी। सब भाग गये थे। तभी अचानक शिखर की नजर एक वृद्ध हाथी पर पड़ी। उसे हाथी अपनी ओर आते हुए दिखाई दिया। उसके हाथ-पाँव फूलने लगे। जैसे ही हाथी करीब आया , उसकी आँखों के सामने अंधेरा छाने लगा। फिर तभी उसे लगा कि किसी ने अपनी गोदी में उसे उठा लिया है। कुछेक क्षण पश्चात आँखें खुली तो सामने एक प्रौढ़ औरत थी। डरे-सहमे शिखर के कुछ कहने से पहले उस औरत ने कहा- ‘ बेटा ! अब तुम मत घबराओ। हाथी तुम्हें कुछ नहीं करेगा। ‘
‘ अंटी, आप कौन हो ? कहाँ से आयी हो ? मैं तो आपको पहली बार देख रहा हूँ। ‘ सकपकाते हुए शिखर ने कहा।
‘ मैं एक वनपरी हूँ। इस जंगल में ही रहती हूँ। जंगल की रक्षा करना मेरा काम है। ‘ औरत मुस्कुराते हुए बोली। फिर शिखर ने वनपरी को अपना नाम बताया। अपनी अध्ययन कक्षा सातवीं बताई। गाँव का नाम बताते हुए मम्मी-पापा को बिना बताये एवं बड़ी बहन से जिद करके जंगल आने वाली बात भी वनपरी को बता दी।
‘ शिखर बेटा, यह तुमने अच्छा नहीं किया। तुम्हारी दीदी व मम्मी-पापा बहुत चिंता कर रहे होंगे तुम्हारे जंगल आने से। ‘ वनपरी ने मुस्कुराते हुए अपनी छड़ी घुमाई। शिखर बोला- ‘ हाँ , मुझसे गलती हुई है। चलो न मुझे अपने घर छोड़ दो अंटी। ‘ शिखर के चेहरे पर घबराहट देख कर उसकी पीठ पर हाथ फेरती हुई वनपरी बोली- ‘ बेटा , मुझे अंटी मत बोलो। मैं तो तुम्हारी माँ जैसी हूँ। ‘ तभी ‘चलो ठीक है , मैं आपको वनदेवी बोलूँगा ; आप मेरी मम्मी की उम्र की हो। देवी जैसी बहुत खूबसूरत हो। लगता है,इस जंगल की परी हो। मुझे वनदेवी अच्छा लग रहा है। ‘ शिखर बीच में ही बोल पड़ा।
शिखर की बातें सुन वनपरी खिलखिला कर हँस पड़ी। बोली- ‘ ठीक है। वनदेवी हूँ। मुझे एक और नया नाम मिल गया। वनदेवी ही बोलना। ‘ फिर वनपरी को निहारते हुए शिखर कहने लगा- ‘ आप इस जंगल में कहाँ से आयी हो ? किसने भेजा है आपको यहाँ ? क्या करती हो ? बताओ न वनदेवी ? ‘
वनपरी बोली- ‘ मुझे वन की रक्षा करने के लिए प्रकृति ने भेजा है। ‘
‘ वन की रक्षा करने के लिए ! आपको प्रकृति ने भेजा है…वो कैसे ? ‘ अचम्भित स्वर में शिखर बोला।
‘ जंगल के सारे जानवर आज मनुष्य से भयभीत हैं। मनुष्य के द्वारा वनों की अवैध कटाई की जा रही है। जंगल उजड़ता जा रहा है। वे नदी-नाले , झील व झरनों के पानी पर अपना हक जताने लगे हैं। पहाड़-पर्वत को बारूद से तहस-नहस कर रहे हैं। उनके बिछाये बारूद की आवाज व धुएँ से परेशान होकर जानवर इधर-उधर मारे-मारे फिर रहे हैं। रिहाइशी इलाके की ओर भाग रहे हैं। आज वन्य पशुओं का जीवन संकट में है। ‘ वनपरी लम्बी साँस लेती हुई रुकी। फिर शिखर बोला – ‘ हाँ वनदेवी ! तभी तो काफी दिनों से हाथी का एक दल हमारे क्षेत्र में घूम रहा है। उसी दल का है यह बूढ़ा हाथी। हाथियों ने हमारे घर, बाड़ी व खेत-खलिहानों को बहुत नुकसान पहुँचाया है ; और यह बूढ़ा हाथी तो हिंसक हो गया है। उसने कुछ लोगों की जान तक ले ली है। ‘ शिखर के शांत होते ही वनदेवी बोली- ‘अन्य जंगली जानवरों की तरह हाथी भी अकारण किसी पर हमला नहीं करता। यद्यपि उनके रास्ते में पड़ने वाले खेत-खलिहान व बाड़ी-बखरी के फसल व सब्जियों को नुकसान पहुँचता है , वे इन पर जानबूझकर उपद्रव नहीं करते। पर मनुष्य तो जानबूझकर गलती करते हैं। है ना…? ‘
‘ वो कैसे वनदेवी ? ‘ शिखर ने सवाल किया ?
‘ अपने रास्ते चलते हाथियों को हल्ला मचा कर , टिन-टप्पर व कनस्तर को बजाकर या पटाखे फोड़ कर उन्हें चिढ़ाते हैं। तुम जैसे बच्चे उन्हें पत्थर फेंक कर मारते हैं। गुस्साया कोई भी जानवर बहुत खतरनाक होता है। इन सबके कारण कुछ अप्रिय घटनाएँ घट जाती हैं। अभी ही देखो न , वह तुम्हारी ही ओर लपक रहा था। अगर मैं नहीं आती तो , पता है न क्या होता। ‘
‘ हाँ वनदेवी। वह हाथी मुझे मार डालता। ‘ शिखर वनदेवी से लिपटते हुए बोला- पर वह अभी तक अपनी जगह पर ही क्यों खड़ा है वनदेवी ? वह तो टस से मस क्यों नहीं हो रहा है ? ‘ वनपरी को शिखर की बातें सुन हँसी आ गयी। वृद्ध हाथी की ओर छड़ी से इशारा करते हुए बोली – ‘ मैंने अपनी छड़ी घुमा कर उसे उसकी जगह पर ही खड़ा कर दिया है। यदि मैं समय पर नहीं आती तो कुछ भी हो जाता। तुमने इस तरह जंगल आकर अच्छा नहीं किया। ‘ वनपरी की बातें सुन शिखर नर्वस हो गया। शिखर बोला- ‘ अब मैं घर जाना चाहता हूँ वनदेवी। मुझे डर भी लग रहा है। मम्मी-पापा भी बड़े चिंतित होंगे। ‘
‘ तुम बिल्कुल मत घबराओ। तुम्हें घर तक मैं छोड़ूँगी। तुम्हारे मम्मी-पापा से मैं बात करूँगी। वे तुम्हें कुछ भी नहीं कहेंगे। पर शिखर बेटा मेरी एक बात गाँठ बाँध लो कि जंगली जानवरों को कभी मत सताना ; और अपने दोस्तों को भी बता देना कि जानवरों से दोस्ताना व्यवहार रखें। प्रेम व स्नेह की भाषा जानवर भी समझते हैं। ठीक है, चलो तुम्हें मैं तुम्हारे घर तक छोड़ आती हूँ। फिर वनपरी और शिखर घर की ओर चल पड़े।
घर के समीप पहुँचते ही शिखर खुशी के मारे उछल पड़ा। गेट खोलते हुए जोर-जोर से आवाज लगाने लगा- ‘ मम्मी..! पापा…! देखो… देखो… मेरे साथ वनदेवी आई है। वनदेवी…वनदेवी…। ‘ शिखर की आवाज सुन कर मम्मी-पापा दौड़ते-दौड़ते आये। पीछे-पीछे विभा आई। तीनों एक-दूसरे को देखते हुए मंद-मंद मुस्कुराने लगे। बिस्तर पर लेटा शिखर नींद में बड़बड़ा रहा था।
— टीकेश्वर सिन्हा ‘गब्दीवाला’