कविता

कफन तिरंगा होता है

मैं लिखते- लिखते रोई बहुत
उनके शहादत के गीत
बार बार दोहराती हूँ
मोम बत्तियां जब
शोक में डूबी थी
तब चिराग तले
अंधेरा छाया था
हंसते-हंसते देश की खातिर
जिसने फांसी को
गले लगाया था
वो वीर नहीं सिंहराज थे
जब फांसी के फंदे ने
उन्हें झूलाया था
सुखदेव,भगतसिंह,
राजगुरु सा
न आयेगा,न आया था
इस लिए मेरे मन को
कोई और न भाया था
सच  ! तिरंगा अब मुझे
सनम से प्यारा लगने लगा है
जो अपने सीने से लगाऐ मुझे
सुकून की नींद सुलाने चला है
अब मुझे लगता है
यूँ मरने से बेहतर है
वतन पे मर मिटती मै
गर कफन तिरंगा होता तो
इक बार नहीं सौ बार
फना हो जाती मैं।

— लता नायर

लता नायर

वरिष्ठ कवयित्री व शिक्षिका सरगुजा-छ०ग०