कर्मयोगी कौन है
यह बात 2004 की हैं। मेरे मन में बदरीनाथ केदारनाथ जाने की इच्छा जागी । ऋषिकेष पहुंचकर मैं सुबह ही बस में बैठ गया जब शाम के 4-5 बजे तो मुझे बस में लगातार 13 घंटे बैठने के बाद थकावट लगने लगी हालांकि मैने टिकट लम्बी यात्रा का लिया था मैने बस से उतर कर यात्रा तोड़ने का निष्चय किया व एक रमणीक स्थान पर उतर कर पास के गाँव की और चल पड़ा। एक छायादार पेड़ के नीचे बैठकर अभी खाने की पोटली खोली ही थी कि पास के ही एक घर से आवाज़ आई ‘‘यहाँ आकर खाना खा लीजियें‘‘ घूम कर देखा तो यह आग्रह करने वाले 70 के करीब के एक बुजुर्ग थे। मैं भी इन्कार न कर सका और उनके कमरे में चला गया। उन्होने हाथ वगैरा घलवाये, खाना गर्म कर दिया व साथ में चाय बना कर ले आये।
थका हुआ था इसलिये इस सेवा से मन प्रसन्न हो गया कुछ बातचीत हुई मेरा विचार था कि मैं आराम करके रात को बस पकड़ कर निकल जाऊँगा पर उन सज्जन ने कहा कि आप जल्दी सुबहः निकलोगें तो यात्रा का आनन्द उठायेंगे। आप रात को मेरी इस छोटे से आश्रम में ही रह सकते है। मै भी उनके कहने पर रुक गया। वहीं एक तख्त पर मेरा इन्तजाम कर दिया। रात को वे दाल और चपात बनाकर ले आये। सुबह मैं 5 बजे उठ गया वह सज्जन तब तक नहा धो कर पूजा करके तैयार थे। मैं नितृत होकर जब जाने लगा तो मैने श्रद्वा के रुप में कुछ धन राशी उनकें पैरों पर रखकर धन्यवाद किया व अन्तःकरण से ही यह शब्द निकले ’’मुझे ऐसा लगा कि मै किसी स्वर्ग में रहा हँू‘‘ वे मेरे कन्धों पर हाथ रख कर पैसे वापस देते हुये बोले ’’
यह आप क्या कर रहे है। मैं उनके संकोच को समझ रहा था व बोला कि यह आपकी सेवा का मूल्य नही परन्तु आप यहां अकेले रहते है व धन तो सेवा के लिये चाहिये होता है इसलिये यह छोटी सी राषी दी है कल को किसी अैर के काम आयेगी। उन्होने मुझे बैठने के लिये कहा व फिर बोले ’देखिये मैं एक विष्वविधालय से सेवानिर्वृत प्रौफेसर हंू धन की कभी कमी न थी बच्चे सब पढ़ लिख कर ऊँचे- ऊँचे पदों पर है। अगर धन से ही शान्ति मिलती तो यहाँ क्यों आता। यहां इस गाँव में रहता हँू । एक निजी स्कूल है, वहां अवैतनिक तीन घंटे पढ़ाता हँू व शाम को दो घंटे आस पास के बच्चों को गणित व विज्ञान की टयूशन देता हंू ताकि बवउचमजपजपवद में अच्छा चमतवितउ कर सकें। यह गांव वाले मेरी सभी जरुरतों का ख्याल रखतें हैं, मुझे यह महसूस ही नही हुआ कि मैं अकेला हंू। आषा है आप यह बताने के बाद पैसे वापस जेब में रख लेंगे। मैं आप के साथ चल रहा हॅंू। मुझे बस वाले पहचानते है वे बस रोक देंगे आपको काफी इन्तज़ार करना पड़ सकता है।
बहुत सी बाते किताबें पढ़ने से नहीं ेआती मुझे एक कर्मयोगी के दर्षन हो गये थे मैं समझ गया था कर्मयोगी कौन है स्वामी विवेकानन्द के शब्द में- कर्मयोगी व्यक्ति की चारित्रिक निर्मलता और सादगी दूसरों को बिना कुछ कहें प्रभावित करती है। उसको अपने नाम के आगे ‘महात्मा’ इत्यादी अलंकार लगाने की आवष्यकता नहीं होती जों ऐसे कर्मयोगी से मिलता है वह ही उन्हे महात्मा के रुप में पाता है
ऐसे ही एक कर्मयोगी थे श्री एन0डी0ग्रोवर जिन्होने अपना सम्पूर्ण जीवन डी0ए0वी0 षिक्षा अन्दोलत के लिये सर्म्पित कर दिया। क्या कोई विष्वास कर सकता है कि सेवा निवृत होने के बाद उन्होने बिहार में जहां कोई डी0ए0वी0 विद्यालय नही था 100 षिक्षण संस्थाओं की अकेले घूम घूम कर स्थापना की। वह इतने सादे थे कि लोग उन्हे ’’झोले वाला बाबा‘‘ जी कह कर सम्बोधन करते थे। खद्दर का एक झोला जिसमें उनकी डायरी, तौलिया और एक कुर्ता पैज़ामा रखा होता था इसे लेकर ही वह हर जगह घूमते थे यही उनका साज सामान था इसी सादगी और चरित्र को देखकर लोग लाखों की धन ज़मीन दान दे देते थे।
हमारे शास्त्रों में कहा है कि हम 100 वर्ष तक जियें पर कर्म करते हुये जियें। कर्म भी करें पर कर्म में लिप्त न हों।