ग़ज़ल
दबी चोटें उभरना चाहती हैं
कराहें चीख बनना चाहती हैं
पुजारी हम हैं खामोशी के लेकिन
निगाहें शोर करना चाहती हैं
ये लहरें दर्द की बनकर सुनामी
हमें जिन्दा निगलना चाहती हैं
किनारे पर पड़ी बूँदें करें क्या
समन्दर में उतरना चाहती हैं
बिखरकर सात रंगों में ये किरणें
उजाला बन सिमटना चाहती हैं
हृदय की ‘शान्त’ श्यामल कामनाएँ
तुम्हें छूकर निखरना चाहती हैं
— देवकी नन्दन ‘शान्त’