मुक्तक/दोहा

कुछ दोहे

मैं सबमें सब मुझमें बसे, ऐसी चाहूंँ मैं प्रीत।

चल रे मन तू वो नगर, जहांँ ऐसी चल रही रीत।।

मैं सुन्दर वो सुन्दरी दिखती, नहीं है कोई कुरूप।

हर रचना मुझे अद्भुत दिखती, सब है प्रकृति की रूप।।

प्रीत की रीत समझ न सके तो, कौन सी गाऊंँ गीत।

प्रीत न रहे जगत में तो फिर, क्यों जीना मेरे मीत।।

दुख काटो तो सुख फिर होगा, ये कैसी है सीख।

भ्रम जाल में मत फंँसो, बिन संघर्ष न होती जीत।।

धन से बड़ा नहीं कोई होता, हृदय से बनो महान।

क्रांति-वीरों से ऊंँची बोलो, है किस अमीर की शान।।

अपने लिए है जानवर जीता, जग खातिर इंसान।

जो इस बात की समझ है रखता, सच्चा ज्ञानी मान।।

अपना-पराया जो करता है, उसे बुद्धिहीन तू मान।

हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, सब है एक समान।।

जो जात-पात में उलझा रहा, उसे तुल्य दरिन्दा मान।

सबको आगे बढ़ने का, मिले मौका एक-समान।।

गांव-शहर मैं ढूंढ रहा, मुझे मिले काश वैसा इंसान।

जो औरों के लिए चिंतित हो, औरों के लिए देता जान।।

है दिल की ये आरजू , मेरे दिल को समझे कोई।

मानवता की रक्षा खातिर, मर मिटे हरकोई।।

— अमरेन्द्र

अमरेन्द्र कुमार

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