जिंदगी खूबसूरत है
चित्रा बहुत हँसमुख स्वभाव की सुन्दर युवती। बिंदास, मस्त मौला, जिन्दगी को सहज रुप से स्वीकार लेने वाली। जहाँ भी जाती अपनी खुशी की खुशबू बिखरा देती। नाट्य कला से उसे लगाव था। गज़ब की अदाकारा थी। कालिदास की शकुन्तला, वृंदावन लाल वर्मा की मृगनयनी की नायिका, दीपदान की पन्ना जाने कितने ही नाटकों में अभिनय कर पुरस्कार बटोरे। गला बेहद सुरीला, लोग मग्न हो उसके गाने को सुनते। एकलौती सन्तान, दुख ने कभी उसे छुआ ही नहीं था। उसका मौसी के बेटे के यहाँ शादी मे गंगा नगर जाना हुआ। चित्रा के कारण विवाह मे रंग जम गया। रिश्ते की भाभियाँ गुहार लगाती “बीबी रानी मेहंदी लगा दो,अच्छी सी डिजाईन बनाना।” चाची ताई कहती “चित्रा अरे नाच ना, आँगन सूना है।”
बड़ी अम्माँ ने टोका “ढोलक पर जरा जम के थाप लगा बिटिया। दूल्हे के हल्दी माँ के बाद बहिन लगाती है, कहाँ है चित्रा? —बुलाओ उसे। चारो ओर चित्रा की गुहार और चित्रा है की चकर घिन्नी बनी डोल रही है, इस बात से अनजान की किसी की एक जोड़ी आँख उसी पर लगी है।
भाभी विदा हो ससुराल आई। चित्रा ने दरवाजा रुकाई नेग ले अंदर की ओर पलटी की किसी से टकराई, नीचे गिरने ही वाली थी की किन्ही दो हाथों ने उसे थाम लिया। शरमा कर भागी, उसके हाथ से नेग में मिली अँगूठी वहीं गिर पड़ी। चित्रा को सुध ही नहीं रही अँगूठी की। वो तो हाथों की छुअन और गर्म टकराती साँसों में मदहोश हो गई। फिर तो आँखों ही आँखों में मिलना, मौन भाषा में प्यार का इज़हार। प्रेम मन ही मन में हरियाने लगा।
चित्रा का अपने शहर लौटने का समय आ गया। भारी मन और भीगी आँखें ले चित्रा, कार की ओर बढ़ी, वो किसी को ढूंढ रही थी पर जिसे ढूंढ रही थी वो नहीं मिला। चित्रा के भी विवाह के लिये उसके माँ पिता ने वर की तलाश शुरु की। आखिर एक परिवार में रिश्ते की बात तय हो गई । चित्रा उदास थी। वो अपने प्रेमी को भुला नहीं पायी थी, लेकिन उसे तो उसने मौसी के घर से लौटते समय ही खो दिया था। माता पिता की बात मान ये विवाह स्वीकार कर लिया। धूमधाम से विवाह के पश्चात चित्रा ससुराल आ गई।
विनोद, चित्रा का पति, चित्रा की तरह प्रसन्नचित स्वभाव का था। अपने प्यार और खुशमिज़ाज़ी से उसने चित्रा को पुरानी चित्रा में बदल दिया। धीरे धीरे चित्रा हँसने, खिलखिलाने लगी। ससुराल के सभी लोग उससे खुश रहते। इस बीच चित्रा अपनी माँ के पास भी हो आयी । माँ ने भी पुरानी चित्रा को देख राहत की सांस ली। उसने अपनी माँ को बताया की विनोद और उसकी ससुराल मे सभी लोग बहुत अच्छे है उसे बहुत प्यार करते हैं।
सब कुछ अच्छा चल रहा था कि एक दिन सुबह -सुबह एक कार दरवाजे पर रुकी। एक लड़का और उसके साथ एक आदमी कार से बाहर आये। लड़का ऐसा लग रहा था मानो किसी लम्बी बीमारी से उठा हो। क्षीण काया, आँखों में जीवन की आशा मर चुकी हो जैसे। घर के सब लोग उसे लेकर अंदर आये। बिस्तर पर लिटाया,उसकी सेवा और परिचर्या में लग गए। चित्रा के कुछ समझ में नहीं आ रहा था। ये लोग कौन है, घर में कभी चर्चा ही नहीं हुई थी इसकी।
उसे चित्रा की सास ने बताया की यह विनोद के ताया जी का बेटा है। वे गाँव मे रहते हैं। बचपन से ही बोल नहीं पाता। कुछ साल पहिले ये गंगा नगर अपने दोस्त की शादी में गया था। पता नहीं क्या हुआ वहाँ से लौटने के बाद ये उदास सा रहता, फिर इसकी तबियत बिगड़ने लगी। फीवर रहने लगा। रात रात भर सोता नहीं, बस दीवार की तरफ पीठ किये पड़ा रहता, दिन पर दिन कमजोर होता जा रहा था। इलाज चल रहा है। अस्पताल से अभी डिस्चार्ज हुआ तो लौटते में दो दिन के लिये यहाँ रोक लिया थोड़ा आराम मिल जाएगा, गाँव दूर पड़ता है न।
“चित्रा बेटा, रवि को दूध और दलिया दे आओ।” सास के कहने पर रवि का नाश्ता ले उसके कमरे में गई। रवि दीवार की ओर करवट लिये लेटा था। चित्रा उसका नाश्ता रख वापिस लौटने को हुई की रवि ने करवट ली। उसने चित्रा का हाथ पकड़ लिया।चित्रा को ये छुअन जानी पहचानी सी लगी। अतीत याद आने लगा। रवि वही लड़का तो नहीं जो मौसी के यहाँ शादी मे मिला था। प्रेम का पहला पाठ जाना था उसने।अंदर तक सिहर गई चित्रा। वो तो सब भूल गई थी। और आज सब इस तरह सामने आयेगा कब सोचा था उसने। कहाँ वो सुन्दर कामदेव सा रुप और आज ये सूनी सी आँखे, जर्जर सी काया। कैसे पहचानती —-। पर वो हाथो का स्पर्श आज भी वैसा हैं। चित्रा की आँखे नम हो गई।
चित्रा ने अब रवि की परिचर्या सम्भाल ली, उसके पास बैठती। खूब बातें करती, उसे हँसाती। दीन दुनिया की बातें सुनाती। कभी कभी चित्रा, उसकी सास, विनोद, रवि के पास बैठते, चित्रा गाने सुनाती। अब चित्रा के मन मे रवि प्रेमी नहीं, विनोद का भाई, एक दोस्त और मानसिक रोगी के रुप में था जिसे एक सहारे की जरुरत थी। वो रवि को जिन्दगी देना चाहती थी । अपनी तरह की बिंदास जिन्दगी। रवि उसकी बातों, किस्से, कहानी को सुन मुस्कराता, हँसता। दो दिन की जगह रवि और साथ मे आये ताया जी एक माह रुक गए। रवि का स्वास्थ सुधर रहा था। चित्रा ने उसकी माँ, बहिन, दोस्त और एक निश्छल प्रेयसी बन सेवा की। रवि भी समझ गया की प्रेम सीमा में नहीं बंधा होता, वो विस्तृत होता है और ये जीवन किसी एक के लिये मर जाने के लिये नहीं, सबके लिये जीने का होता है।
आज रवि जा रहा है अपने घर, विनोद का परिवार भी खुश है की रवि स्वस्थ हो गया है। चित्रा भी चहक रही है। रवि ने कार में बैठने से पहले चित्रा के हाथ मे एक डिब्बी दी और सबसे विदा ली। चित्रा ने डिब्बी खोली उसमे वो अँगूठी थी जो मौसेरे भाई के विवाह में द्वार रुकाई के समय नेग में मिली थी और जब रवि से टकराई थी तो अँगूठी गिर गई थी। चित्रा मुस्करा दी, जिन्दगी खूबसूरत है।
— सुनीता मिश्रा