क्या है पर्यटन, तीर्थाटन और देशाटन ?
दुनिया में जितने भी देश हैं उनमें भारतवर्ष सबसे विशिष्ट है। दुनिया के सारे देश भोग भूमि हैं जबकि भारत मोक्ष की भूमि है, पुण्य भूमि है, महामंगलमयी भूमि है, यह त्याग की भूमि है। इस भूमि की प्रसंसा तो देवता भी करते हैं श्री विष्णु पुराण में एक श्लोक आता है –
“गायन्ति देवाः किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारतभूमिभागे । स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात् ॥”
अर्थात् देवतागण भी इस भूमि का बखान करते नही थकते। किन्तु विकास और आधुनिकता की इस चकाचौंध में भारत की विशिष्टता नष्ट होती जा रही है। भारत आध्यात्मिकता, संस्कृतियों, सभ्यता और मनुष्यता की सर्वोच्च आत्मिक चेतना का केन्द्र है। किन्तु आज की नौजवान पीढ़ी पाश्चात्य के अंधानुकरण से अपनी विरासत खोती जा रही है। सात्विक भोजन, सात्विक भजन, सात्विक भ्रमण, सात्विक परिधान और सात्विक विचार, को दरकिनार कर विलासिता में डूबते हुए प्रारब्ध, वर्तमान और भविष्य को गर्त में डालते हुए नर्क के वशीभूत हो रहे हैं। इस समस्या से निजात पाने के लिए भारतीय मन, भाव और भाषा को समझना आवश्यक हो रहा है आज भारत के युवा – युवतियां घूमना टहलना अधिक पसंद कर रहे हैं घूमना अच्छा है लेकिन भारतीय अवधारणा के साथ व्यवहार कर घूमना चाहिए। हम सबने अपने बड़ों से सामान्यतः तीन शब्द सुने होंगे पर्यटन, तीर्थाटन और देशाटन। इन शब्दों के भाव अलग – अलग हैं और उन्ही भावों के अनुसार हमको भ्रमण तय करना चाहिए।
संस्कृत साहित्य में पर्यटन को, आराम के लिए और ज्ञान पाने के लिए यात्रा करने के उद्देश्य से अपने निवास स्थान को छोड़ना है। पर्यटन प्रायः मनोरंजन के लिए किया जाता है। पर्यटन में कोई बंदिश नहीं होती स्वेच्छा से मन मुताबिक भोजन और परिधान धारण किया जा सकता है। देशाटन अन्य शब्द है जिसका अर्थ आर्थिक लाभों के लिए भ्रमण करना है। देशाटन में लोग कुछ सीखने, समझने और शोध के उद्देश्य से भी स्वदेश और अन्य देशों की यात्रा भी होती है। तीर्थाटन तीसरा समतुल्य शब्द है जिसका अर्थ धार्मिक उद्देश्य के लिए यात्रा करना है। तीर्थाटन शांति, आध्यात्मिकता, मोक्ष, पुण्य लाभ, भगवतभक्ति, आत्मिक आनन्द और सेवा भक्ति के लिए तीर्थ यात्रा होती है। अब जब हम देखते हैं तो विकास के इस अभियान में हमारे तीर्थ स्थल भी पर्यटन स्थल बनते जा रहे हैं और यही सबसे बड़ी समस्या है। जगह – जगह पर इस विषय को लेकर छिटपुट विवाद भी सामने आ रहे हैं। हमारे तीर्थ वैभव के आवरण में अब तीर्थत्व खोते जा रहे हैं। तीर्थ तो वह है जो मानसिक भाव को चेतना के उस धरातल पर पहुंचा दे जो शान्ति में अवगाहन करा सके। ‘एक बार भगिनी निवेदिता से किसी ने पूछा कि यदि नियाग्रा जल प्रपात भारत में होता तो वहाँ क्या होता? भगिनी निवेदिता ने उत्तर दिया ‘वहाँ नाइट पार्टियों के आयोजन और उन्मुक्त भोग के स्थान पर ऋषियों की छोटी-छोटी कुटिया होतीं और वहाँ पर ज्ञान एवं योग की चर्चा हो रही होती।’ यही है भारत का तीर्थत्व। आज तीर्थो पर जाने वाले नवयुवक आध्यात्मिकता के भाव से नही बल्कि मनोरंजन के उद्वेश्य से जाते हैं जहां देवता की सभी मर्यादाओं को भूलकर कभी – कभी अश्लीलता, फूहड़पन तथा अमर्यादित कपड़े धारण कर कोलाहल फैलाने के जिम्मेदार बन जाते हैं यह बहुत ही घिनौना कृत्य हो रहा है इसको जिस प्रकार से हो सके रोकना चाहिए। स्थिति यह है कि जो तीर्थों की खोज में हैं वे तीर्थों से दूर होते जा रहे हैं। तीर्थों के विकास और पर्यटकों के आने की संभावना को देखते हुए। व्यावसायिक संत और सेठ वहाँ अपने नये-नये उद्यमों की संभावना खोज रहे हैं। तीर्थ अब अपने भाव से पलायन कर रहे हैं, लेकिन वे जहाँ जा रहे हैं विकास उनका पीछा नहीं छोड़ रहा है और इस विकास के पीछे उन्मुक्त भोग और व्यापारिकता की दौड़ अनवरत जारी हैं। उत्तर से दक्षिण पूर्व से पश्चिम तक के बड़े-बड़े मन्दिर, तीर्थ स्थान अब कम्प्यूटर से जुड़ गए हैं। ई-आरती, ई-बुकिंग, ई-दर्शन, ई-यात्रा – भगवान का सब कुछ बाजार ने अपनी लालची तिजोरी में डाल लिया है। इस विकृति से हमको निजात पाने के लिए पर्यटन, तीर्थाटन और देशाटन को समझना होगा और उनकी परिभाषाओं के आधार पर ही हमे अपने व्यवहार में परिवर्तन करना चाहिए।
— बाल भास्कर मिश्र