सहज संगिनी
बहुत दिनों से लिखा न कुछ भी,क्या लिख दूँ।
पढ़ने में हूँ लगा ज़िन्दगी,क्या लिख दूँ।
जिन्हें मित्र कहता था सगा वह साथ नहीं,
चले निभाने वो हैं दुश्मनी,क्या लिख दूँ।
आज ज़माना चालाकों का सत्य है ये,
साथ हमारे सिर्फ़ सादगी,क्या लिख दूँ।
प्यार हृदय का तन्हाई में तड़प रहा,
बनी वेदना सहज संगिनी,क्या लिख दूँ।
‘सरस’ कृपा है मातु शारदे की हरदम,
पूछे दिल की राग-रागिनी,क्या लिख दूँ।
— सतीश तिवारी ‘सरस’