राजनीति

बढ़ती आबादी और घटते संसाधन

बेतहाशा बढ़ती आबादी आज दुनिया की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है। दुनिया के कई देशों बढ़ती जनसंख्या के अनुपात में वहां उपलब्ध संसाधन अब कम पड़ने लगे हैं। जाहिर है कि अगर किसी भी देश की जनसंख्या लगातार तीव्र गति से बढ़ेगी, तो उसी अनुपात में वहां उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव भी बढ़ेगा। इसे भारत के संदर्भ में देखा जाए तो 7 जुलाई, 2024 को भारत की जनसंख्या एक अरब 44 करोड़ 19 लाख 10,332 थी। यह दुनिया की कुल जनसंख्या (8.119 अरब) का लगभग 18.02 फीसद भू-भाग पर जो विश्व के महज ढाई फीसद पर जीवन यापन करने को विवश है। इसी वर्ष अप्रैल के अंत में जारी संयुक्त राष्ट्र की खाद्य संकट पर वैश्विक रपट के अनुसार आज दुनिया भर के 59 देशों के लगभग 28.2 करोड़ लोग भूखे रहने को मजबूर हैं।

रपट के अनुसार युद्धग्रस्त गाजा पट्टी और सूडान में बिगड़े खाद्य सुरक्षा के कारण 2022 2.4 करोड़ से भी अधिक लोगों को भोजन के अभाव में भूखे रहना पड़ा था। देखा जाए तो संयुक्त राष्ट्र की रपट इस बात की ओर साफ संकेत करती है कि जैसे-जैसे विश्व की जनसंख्या बढ़ती गई, वैसे- -वैसे लोगों की संख्या में भी लगातार वृद्धि होती गई। भोजन के अभाव पर संयुक्त राष्ट्र की पहली रपट 2016 आई थी, जिसकी तुलना में ताजा रपट में विश्व भर में भूखे लोगों की में चार वृद्धि हो चुकी है। गौरतलब गुना संख्या कि बढ़ती जनसंख्या ‘जनसंख्या के अनुपात में सभी नागरिकों के भोजन, वस्त्र, आवास, पेयजल, चिकित्सा व्यवस्था, दवाइयां आदि मूलभूत आवश्यकताओं की सरल काम नहीं है। बढ़ती आपूर्ति करना किसी भी सरकार के लिए आबादी के कारण ऊर्जा के विभिन्न स्रोतों है, तेल और प्राकृतिक कोयला, तेल प्राकृतिक गैसों आदि पर भी अत्यधिक दबाव बढ़ गया , जिसे कम कर ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों की तलाश और उपयोग करना जरूरी है। अर्थशास्त्री थामस राबर्ट माल्थस ने सन 1798 में गणितीय रूप से भोजन और मानव जनसंख्या के बीच संबंधों पर विचार करके बाद बताया था कि खाद्य आपूर्ति बढ़ने से जनसंख्या तीव्र गति से बढ़ती है। से बढ़ती है और उपलब्ध संसाधनों धनों को समाप्त कर र देती है. • जसके परिणामस्वरूप मानव पीड़ा बनी रहती है. जब तक कि जनसंख्या को नियंत्रित नहीं किया जाता। 1888 में तत्कालीन वायसराय लार्ड डफरिन ने यह आशंका व्यक्त की थी कि भारत में कृषि उत्पादन कम है और तीव्र जनसंख्या वृद्धि के कारण यहां अकाल पैदा होता है। इसके बावजूद 1871 से 1941 तक भारत की औसत जनसंख्या वृद्धि दर 0.60 फीसद रही, जबकि दुनिया का औसत 0.69 फीसद था। हालांकि बीसवीं सदी के प्रथम दो दशकों में जनसंख्या वृद्धि दर अपेक्षाकृत कम रही। 1931 1931 की जनगणना में सामने आया कि भारत में 1921-1931 के बीच प्रतिवर्ष एक फीसद की दर से जनसंख्या बढ़ी है, सभी चौंक गए, लेकिन 1951 के बाद यह दर लगभग दो फीसद के आसपास पहुंच गई। वैसे 1970 के दशक से देश की जनसंख्या वृद्धि दर में निरंतर गिरावट आई है, जो संभवतः पिछले कुछ दशकों में शिक्षा और स्वास्थ्य के स्तर में किए गए सुधारों का परिणाम है, क्योंकि अब तक जनसंख्या वृद्धि की दर सर्वाधिक उन्हीं क्षेत्रों में पाई गई है, जहां लोग शिक्षित और स्वस्थ नहीं होते। हालांकि यह गिरावट अपेक्षाकृत काफी धीमी रही है आर्थिक सर्वेक्षण के आंकड़ों पर गौर करें तो भारत में वर्ष 1971-81 के बीच 2.5 फीसद रही वार्षिक जनसंख्या वृद्धि की दर 2011 16 के मध्य तक आते-आते 1.3 फीसद रह गई। इसका दूसरा पक्ष यह है कि जनसंख्या बढ़ने और संसाधनों के घटने से देशों पर कर्ज का बोझ भी बढ़ने लगता है। बिजनेस स्टैंडर्ड की एक रपट के अनुसार सितंबर 2023 तक भारत पर कुल कर्ज का बोझ 205 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच गया था। वहीं, विश्व आर्थिक मंच की 2021 में जारी एक रपट के अनुसार शिक्षा गुणवत्ता में भारत का स्थान नब्बेवां है। जनसंख्या संबंधी संयुक्त राष्ट्र की 15 नवंबर, 2022 को जारी एक रपट के अनुसार 2027 भारत चीन को पछाड़ देगा, जबकि संयुक्त राष्ट्र के आकलन को झुठलाते हुए अप्रैल 2023 में ही चीन को पछाड़ कर भारत दुनिया में सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बन गया। फरवरी 2024 में संयुक्त राष्ट्र ने ही अपनी एक अन्य रपट जारी की थी। हालांकि 2011 क । के बाद से भारत में जनगणना नहीं हुई है। बहरहाल, अनियंत्रित जनसंख्या वृद्धि के कारण उत्पन्न बेरोज बेरोजगारी, भुखमरी, • कुपोषण, बीमारी, गरीबी, लाचारी आदि ऐसी समस्याएं हैं, जो किसी भी समाज के नैतिक, सैद्धांतिक, सांस्कृतिक, पारंपरिक और नैष्ठिक ताने-बाने को ध्वस्त कर सकती हैं। हैं। इसके कारण व्यक्तियों का सामाजिक विकास, सांस्कृतिक उत्थान, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नयन बाधित अगर र ऐसा हुआ ता बाधित हो सकता है। तो समाज में चारों ओर हिंसा, बलात्कार, भ्रष्टाचार, लूटपाट, चारा, चोरी, झपटमारी, हत्या, आत्महत्या, उग्रवाद और आतंकवाद जैसे अपराधों में बेतहाशा वृद्धि होगी। लोग कानून और लोकलाज की परवाह किए बिना केवल अपने स्वार्थ की पूर्ति में लग जाएंगे। कमोबेश आज ऐसी ही परिस्थितियों से हमारा देश गुजर रहा है। वैसे, जनसंख्या को लेकर भारत के अनुभवों की बात करें तो गांधी को छोड़कर देश के किसी भी प्रधानमंत्री औरचर्य होता है कि इंदिरा प्रधानमंत्री के कार्यकाल में सरकार की ओर से कोई कठोर कदम नहीं उठाए गए, जिससे अनियंत्रित जनसंख्या वृद्धि पर लगाम लगाई जा सके। | शायद सर सरकारें जनता को जनता का नाराज करण करने से बचती रही होंगी, क्योंकि स्वतंत्रता से पूर्व भारतीय समाज में यह धारणा व्याप्त थी कि अधिक जनसंख्या विकास का पैमाना है। दरअसल, उन दिनों जनसंख्या का कम होना नकारात्मक परिस्थितियों की देन माना जाता था, जो एक बुरी स्थिति थी, किंतु समय के साथ हमारी सोच बदलाव आता गया और हमने इस पर विचार करना शुरू किया कि क्या भारत इतनी बड़ी जनसंख्या को संभालने में सक्षम है। समय-समय पर आने वाले भयानक सूखे और अकाल की त्रासदी ने भी इस चिंता को रेखांकित किया। मगर 1970 के दशक तक हमारी सरकारें खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाकर जनसंख्या वृद्धि का समाधान ढूंढ़ती रहीं परिवार नियोजन कार्यक्रम को सख्ती से से अपनाया गया, तो बाद से बढ़ती जनसंख्या पर राजनेताओं ने लोग बेहद नाराज हुए। उसके नेि चुप्पी साधना ही बेहतर समझा। भूमंडलीकरण के बाद भी के बाद भी जनसंख्या का मुद्दा भारत में दबा रहा, लेकिन वर्तमान प्रधानमंत्री ने 2019 में स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल किले की प्राचीर से जनसंख्या वृद्धि पर चिंता जताई और राज्यों से इसे रोकने के लिए योजनाएं बनाने का आह्वान किया। 2024 का अंतरिम बजट पेश करते हुए वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने तेजी से बढ़ती आबादी और जनसांख्यिकी में आए बदलाव की चुनौतियों से निपटने के लिए एक उच्च अधिकार प्राप्त समिति बनाने का एलान किया, जो ‘विकसित भारत’ बनाने के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए इन समस्याओं से निपटने के लिए सुझाव देगी।

— विजय गर्ग 

विजय गर्ग

शैक्षिक स्तंभकार, मलोट