ग़ज़ल
भरोसा कर के उसकी आशिक़ी पर
सितम हमने किए हैं ज़िंदगी पर।
ख़ुदी को ख़ुद सरे बाजार लाकर
ग़ुज़ारा कर रही हूँ बे ख़ुदी पर ।
अगर मुझसे मुहब्बत है तो दुनिया
तरस खाए न मेरी बेबसी पर ।
तलब जन्नत की रखते हो तो साहब
नज़र रक्खा करो नेकी बदी पर ।
तवाज़ुन खो के हँसता था वो लड़का,
लुटा बैठा था दिल इक बावली पर।
मुहब्बत का मेरी दफ़्तर हो तुम तो
मुझे रख लो वहाँ की नौकरी पर ।
‘शिखा’ को गर समझना है तो साहब
करो चिंतन फिर उसकी शायरी पर।
— दीपशिखा