गीत/नवगीत

ये पानी की बूंदें…

ये दरकते पहाड़, ये खिसकती ज़मीनें,
नदियों में बहकर, सिमटती ज़मीनें,
ये पानी की बूंदे डराने लगी हैं,
ये जबसे ज़मीं को बहाने लगी हैं।

हैं आँसू भी बहते, ज़मीनों के संग संग,
हैं अरमान मरते, ज़मीनों के संग संग,
किसानों के आँसू, गरीबों के अरमां,
सुबह शाम मरते, ज़मीनों के संग संग,
के जीवन की चिंता, सताने लगी है,
ये जबसे ज़मीं को, बहाने लगी हैं।

हैं बच्चे भी वंचित, न पढ़ पा रहे हैं,
के मुश्किल घड़ी से, न लड़ पा रहे हैं,
हैं सहमे से रहते, शरारत भी बंद है,
ठहर से गए हैं, न बढ़ पा रहे हैं,
के हर एक आहट, डराने लगी है,
ये जबसे ज़मीं को, बहाने लगी हैं।

तबाही का मंजर, ही फैला है पग पग,
नहीं साफ कुछ भी, के मैला है पग पग,
ये टूटे से घर हैं, के बिखरी हैं सड़कें,
मिटे सारे सपनों का, रेला है पग पग,
ये खामोशी चीखें, सुनाने लगी है
ये जबसे ज़मीं को, बहाने लगी हैं।

ये पानी की बूंदें, डराने लगी हैं,
ये जबसे ज़मीं को, बहाने लगी हैं।

— मुकेश जोशी ‘भारद्वाज’

मुकेश जोशी 'भारद्वाज'

पता - ग्राम - टकौरा, पोस्ट ऑफिस - ऐंचोली, जिला - पिथौरागढ़, उत्तराखंड, 262530 मोबाइल नंबर - 9719822074 व्यवसाय - शिक्षक प्रकाशित कृतियाँ - हिंदी से हम, सृजन के फूल, चंद्रयान साझा काव्य संग्रह, सहित्यनामा पत्रिका में समय समय पर कविताएं प्रकाशित।

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