संकट की घड़ी
इस बार सावन महीने में खूब बारिश हुई। लगातार तेरह दिनों तक सूरज के दर्शन नसीब नहीं हुए। अत्यधिक बारिश कहीं-कहीं फायदेमंद रहा; तो कहीं-कहीं नुकसानदेह। गाँव व शहर दोनों अतिवृष्टि से प्रभावित रहे। शहरों की निचली बस्तियों की स्थिति बहुत खराब हो गयी। गाँव के कई कच्चे घर धराशायी हो गये। पक्के मकान की हालत भी उतनी अच्छी नहीं थी। कुआँ, पोखर, ताल-तलैया सब लबालब। खेत-खार पानी ही पानी। नदियाँ तो नवयवना हो गयीं। जिधर नजरें जाती उधर ही अपार जलराशि नजर आती। अक्सर गाँवों में किसी को आनंद आये या न आये, पर बच्चे बारिश का खूब लुत्फ उठाते हैं। कोई पानी में छप-छप करता है, तो कोई नाव चलाता है, कोई हाथों में कीचड़ लेकर एक-दूसरे पर फेंकते हैं। किसी को रेत या मिट्टी के घरौंदे बनाना अच्छा लगता है, तो किसी को खेती-बाड़ी का खेल खेलना। बस जैसे भी हो उन्हें मजा आना चाहिए, फिर क्या पूछे ? ऐसे ही आज सिंगनवाही गाँव के बच्चे बड़े आनंदित नजर आ रहे थे। वे गाँव से होकर बहने वाली पानी की नाली में कुछ मिट्टी डाल रहे थे। जिससे पानी दो धाराओं में बट गया। दो छोटी-छोटी नालियाँ बन गयी। एक नाली में सभी बच्चे खेल रहे थे, और दूसरी ऐसे ही एक तरफ बह रही थी।
दूसरी नाली की धारा पतली थी। बहाव सामान्य था। इसी नाली के पास एक केंचुआ आया। नाली को पार करके दूसरे किनारे जाना चाहता था। देखा, धारा उसके लिए बहुत तीव्र है। उसे पार करना बहुत जरूरी था, क्योंकि उसके सभी मित्र दूसरे किनारे पहुँच चुके थे। स्वयं अकेला रह गया था। उसे अपने सगे संबंधियों से मिलने की चिंता सताये जा रही थी। सोचने लगा कि पानी में वह डूब तो जाएगा, पर इससे उसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि वह स्वयं एक उभयचर प्राणी है। जल में भी जीवित रह सकता है और जमीन से चिपक कर धीरे-धीरे सरकते हुए नाली को पार किया जा सकता है।
केंचुआ ने पानी में प्रवेश किया। नीचे कीचड़ से सटकर धीरे-धीरे सरकने लगा। पार तो हो रहा था, पर बहुत डरा हुआ था; और डर था अपने बह जाने का। उसके मन में चल रहा था कि आग और पानी में बड़ी ताकत होती है। इन दोनों के समक्ष किसी की भी जिद अच्छी नहीं होती। आधा भय, आधी हिम्मत के साथ आगे बढ़ रहा था। जैसे-तैसे करके वह बीच धार में पहुँच गया। अब तो लौटना उचित नहीं लगा। ओखली में सर रख दिया तो मुसल से क्या डरना है, वाली बात हो गयी। उसे भगवान याद आया- “हे विधाता ऊपर वाले, यह जीवन-नैया तेरे हवाले।”
इधर बच्चों ने खेलते-खेलते पहली नाली में मिट्टी डाल दिया। पानी रूक गया। पहली नाली का पानी भी दूसरी नाली में आने लगा। फिर दूसरी नाली में पानी की धार बहुत तेज हो गयी। केंचुआ को बस कुछ ही दूरी तय करना था दूसरे किनारे पहुँचने के लिए। तभी धार तीव्र होने के कारण कीचड़ से उसकी पकड़ ढीली होने लगी। वह तेजी से बहने लगा।
बहते-बहते केंचुआ एक पतली सी लकड़ी के टुकड़े से टकराया। झट से वह लकड़ी के टुकड़े को कसकर पकड़ लिया। डूबते को तिनके का सहारा। एकदम लिपट गया उस टुकड़े से। डरे-सहमे केंचुए ने राहत की साँस ली। अब वह पानी की धारा के कम होने की प्रतीक्षा करने लगा।
थोड़ी देर बाद केंचुए को एक चींटी पानी में बहते-बहते अपनी ओर आते हुए दिखाई दी। नजदीक आते ही उसे बात समझ आ गयी कि चींटी भी मुसीबत में है। लगा कि जस हाल उद्धव का, तस हाल माधव का। जैसे ही चींटी और करीब आयी ; केंचुए ने आवाज लगाई- “ओ चींटी बहन ! चिंता मत करो। सम्भालो स्वयं को। मुझे पकड़ लो।” वैसे भी केंचुआ अपने शरीर के दोनों तरफ से रेंगने वाला जीव है। केंचुए ने तुरंत अपने एक हिस्से को चींटी की ओर बढ़ा दिया और अपने दूसरे हिस्से के जरिए लकड़ी के टुकड़े से लिपट गया। तुरंत चींटी ने केंचुए के पानी में डूबे हिस्से को पकड़ लिया। पानी का बहाव अब भी कम नहीं हुआ था। केंचुआ बोला- “मुझे कसकर पकड़ी रहो चींटी बहन। बिल्कुल घबराना मत। तुम्हारी जान बच जाएगी। जान है, तो जहान है। हर आफत को टलना ही पड़ता है।”
“हाँ केंचुआ भैया ! आपको बहुत-बहुत धन्यवाद।” चींटी का गला रुँध आया।
“अपने दाढ़े को मेरे शरीर में गड़ा दो। मुझे बिल्कुल मत छोड़ना। पानी का बहाव और तीव्र हो सकता है।” केंचुए ने चींटी को हिम्मत बँधाई।
“पर भैया, आपको बहुत दर्द होगा। मेरे दाढ़े बहुत नुकीले हैं।” चींटी ने कहा।
“तुम मेरी चिंता मत करो। मैं दर्द सह लूँगा। तुम अपना ख्याल रखो। परहित में दर्द भी आनंददायक होता है।” केंचुए ने चींटी को समझाया। इस तरह केंचुआ और चींटी नाली में बहते हुए तीव्र जलप्रवाह से जुझते रहे।
नाली के पानी का बहाव अब तक कम नहीं हुआ था। यद्यपि केंचुए और चींटी की हालत पतली हो गयी थी, फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। तभी अचानक आकाश में काले-काले बादल छाने लगे। हवा भी चलने लगी। बिजली चमकने लगी। गर्जना शुरू हो गयी। दोनों की चिंताएँ बढ़ने लगी। बारिश शुरू हो ही गयी। दोनों काँप गये। उनके लिए दुर्बल को दो आषाढ़ हो गया।
बस पंद्रह-बीस मिनट का समय कटा था। केंचुए और चींटी के पास एक मछली आ गयी। मछली ने केंचुए को देख लिया। उसके मुँह में पानी आ गया। बोली- “वाह ! मौसम नरम-गरम, भोजन गरम-गरम।” मछली की बातें सुन केंचुआ सकपका गया। केंचुआ को मछली का इरादा समझ आ गया। लड़खड़ाती जुबान में बोला- “”मछली दीदी ! आप कैसी बात करती हैं ? मुझ पर तरस खाओ। मैं और ये बेचारी चींटी बड़े संकट में हैं। काफी देर से हम पानी के तेज बहाव से जूझ रहे हैं; और आप मुझे खाने की बात करती हैं। यह तो अन्याय है मछली दीदी।”
मछली बोली- “कैसा संकट ? क्या हुआ ? तुम तो भले-चंगे दिख रहे हो।” फिर केंचुए ने मछली को पूरी आपबीती सुनाई। केंचुए को पकड़ कर लटकी हुई चींटी को देख मछली को माजरा समझ आ गया। वह द्रवित हो उठी। बोली- “तुम दोनों चिंता मत करो। किसी के साथ कोई गलत नहीं होगा। तुम्हें मुझ पर विश्वास करना होगा। तुम दोनों की प्राणरक्षा करना मेरा कर्तव्य है। लेकिन तुम्हें एक काम करना होगा।”
“बोलिए न दीदी। हमें क्या करना होगा ?” केंचुआ बोला।
“चींटी तुम्हें पकड़ी रहेगी। तुम मेरी पीठ से लिपट जाना। मैं पानी के बहाव की दिशा में तैरती हुई दूसरे किनारे तक पहुँच जाऊँगी।” मछली ने कहा।
फिर मछली केंचुआ और चींटी को लेकर पानी में तैरने लगी। बहती तेज धार में केंचुआ और चींटी का घबराना मछली को पता चल गया। इसलिए वह उन दोनों से इधर-उधर की बातें कर उनका मन बहलाती रही। बीच-बीच में केंचुआ व चींटी भी मछली से अपनी मन की बात कर लेते। अंततः मछली, केंचुआ और चींटी नाली के दूसरे किनारे पर सुरक्षित पहुँच गये। तीनों एक-दूसरे को बड़ी आत्मीयता से देखने लगे। थोड़ी देर तक तो खामोश रहे। फिर चींटी बोली- “केंचुआ भैया, अगर आप नहीं होते तो मैं भगवान को प्यारी हो जाती। बड़े दयालु हैं आप। मुझे बचाने के लिए आपने स्वयं को संकट में डाल लिया।”
“चींटी बहन ! विपरीत परिस्थिति में हरेक प्राणी को एक दूसरे की प्राणरक्षा करनी ही चाहिए। जीवन में परस्पर सहभागिता बहुत जरूरी है। मैंने अपना कर्तव्य निभाया है चींटी बहन। लेकिन हम दोनों मछली दीदी की कृतज्ञता कभी नहीं भूल सकते। वे चाहती तो हमें अपना भोजन बना सकती थी। और तो और वे हमें मँझधार में छोड़ सकती थी, पर उसने ऐसा कुछ नहीं किया।” केंचुए के शांत होते ही मछली बोली- “देखो भाई, अनुकूल स्थिति में लगभग सभी सबके काम आते हैं, पर प्रतिकूल परिस्थिति में काम आने वाला भगवान से कम नहीं होता। अब तुम दोनों की ही बातें ले लो।” केंचुआ और चींटी मछली की बातें बड़े कान लगा कर सुन रहे थे।
केंचुए को नामित करते हुए मछली आगे बोली- “तुम चाहते तो चींटी को उसके हाल पर छोड़ सकते थे, लेकिन तुमने उसे संकट से उबारा। सही बात है न ?” केंचुए ने हाँ…हाँ… करते हुए सर हिलाया।
फिर चुप बैठी चींटी को देख मछली बोली- “चींटी बहन, केंचुए के शरीर पर तुम अपने तरीके से अपने दाढ़े गड़ाकर उसे हानि पहुँचा सकते थे। पर तुमने जो भी किया, उचित ही किया।” चींटी हाँ..हाँ… करती रही; मछली बोल रही थी- ” एक मित्र के साथ मित्रता निभाने वाले से शत्रु के साथ मित्रता निभाने वाला बड़ा होता हैं। संकट के समय सहयोग की भावना तो हरेक प्राणी में होनी ही चाहिए।” मछली बोल ही रही थी तभी अचानक उन्हें बच्चों का शोरगुल सुनाई दिया। आने वाले संकट को वे ताड़ गये। एक-दूसरे को अलविदा बोले। मछली ने पानी की राह पकड़ ली। केंचुआ कचरे के ढेर की ओर सरक गया। चींटी एक बिल में घुस गयी।
— टीकेश्वर सिन्हा “गब्दीवाला”