कविता – पिता हैं सूर्य
माता है पृथ्वी
पिता हैं सूर्य
हम बालक चंद्रमा से
उपग्रह बन जाते हैं
माँ के इर्द-गिर्द मँडराते हैं।
पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं
इस सतत प्रक्रिया में
सूर्य की परिक्रमा
अनायास कर डालते हैं।
माँ के पास
जल्दी-जल्दी जाते हैं
पिता के पास कभी-कभी।
पृथ्वी के पास जाते हुए भी तो
दिन में कुछ घंटे
सूर्य के पास हो आते हैं
तभी तो रोशनी पाते हैं।
माँ की ऊष्मा ममता-सी
पिता का ताप क्रोध-सा
सहन करने की शक्ति
कम जुटा पाते हैं, किंतु
पृथ्वी के आस-पास बने रहकर
सूर्य के ताप से ही जीवन पाते हैं।
माँ के चहुँ ओर बारह बार
और पिता के इर्द-गिर्द एक बार
बराबर ही तो हैं
पृथ्वी के साथ-साथ बढ़ते हुए
सूर्य परिक्रमा की कुछ राह
हम तय करते जाते हैं।
माँ का आकार छोटा-सा है
पिता का आकार बड़ा है
वैसी ही हैं ये परिक्रमाएँ
समय उसी अनुपात में है
माँ के साथ रहकर भी
पिता का प्रकाश पाते रहते हैं
पृथ्वी भी तो प्रतिवर्ष
एक चक्कर सूर्य का लगाती है
हम उसके साथ-साथ
एक ही चक्कर लगाते हैं
फिर लोग क्यों कहते हैं
कि हम माँ के दुलारे हैं?
माँ के गुणगान में
हर बालक बन जाता है कवि
पिता के प्रताप से
बालक बनाते हैं उन्हें अपना सवि,
वह सूर्य, जो घुमा रहा है सौर्यमंडल को
और सदियों से घूमते जा रहे हैं हम।
— डॉ. आरती ‘लोकेश’