कथा साहित्य

माँ…. एहसास प्यार का (कहानी)

“भैया थोड़ी तेज़ चलाओ”- शालू कैब चालक को निर्देश दे रही थी। बहुत जल्दी में थी वो आज। मायके से भाभी का फ़ोन आया था कि दीदी जल्दी आओ मम्मी जी की तबियत ज्यादा खराब है वो आपको ही याद कर रही हैं। मार्च का आखिरी सप्ताह था। इतनी गर्मी अभी हुई नही थी मगर शालू पसीने से तर बतर हो रही थी। घबराहट से साँस लेने की गति सामान्य से दोगुनी थी। आवाज लड़खड़ा रही थी। घर से चलने से कैब के सफर में उसे केवल और केवल अपनी माँ का चेहरा ही याद आ रहा था बाकी सभी दृश्य उसे दिखाई ही नहीं दे रहे थे। 

“भैया कितना किराया हुआ” जैसे ही माँ के घर के पास कैब रुकी लड़खड़ाती आवाज में उसने किराया पूछा और पैसे देकर मेन गेट की तरफ  भागी । अंदर छोटे से कमरे में उसके 2 भाई और भाभी खड़े हुए थे। जबकि नज़र माँ की तरफ थी। माँ आँखे बंद करके गहरी सांसें ले रही थी। 

“मम्मी” शालू के मुँह से केवल यही शब्द निकला। और कुछ कहने की सामर्थ्य नहीं थी। 

“दीदी देखो न मम्मी जी सुबह से ऐसे ही लेटी हैं न कुछ खाया न पीया”- भाभी ने शालू को बताया।

शालू शायद आज कुछ कहने की स्थित में नही थी बस सुन रही थी। 

“शालू बेटा”- हल्की सी आवाज सबके कानो में पड़ी। ये माँ की आवाज थी। सबका ध्यान चारपाई पर गया। मम्मी आधी खुली आँखों से शालू को देख पा रही थी और धीरे से शालू को पुकार रही थी। शालू धम्म से नीचे बैठी और माँ के गालों पर हाथ फेरते हुए बोली “क्या हुआ माँ आपको”

माँ कुछ देर शालू को देखती रही फिर नज़र घुमाकर बाकी सदस्यों को देखा। दाएँ हाथ की चरमराती उंगलियों से सबको इशारा किया। शायद वो सभी को कमरे से बाहर जाने को बोल रही थी। शालू को हाथ पकड़कर इशारा किया कि तुम बैठी रहो।

माँ का इशारा समझकर सभी बाहर चले गए। अंदर चारपाई पर अब माँ और माँ के पास फर्श पर शालू थी। 

शालू को माँ के पास बैठे हुए लगभग आधा घण्टा बीत चुका था। दोनों में कोई वार्तालाप नही हो रहा था। माँ अपने दाहिने हाथ से शालू को बार बार सहला रही थी। फिर.. माँ ने शालू को अपनी तरफ खींचने का प्रयास किया। शालू ने अपना चेहरा माँ के चेहरे के पास रख दिया। माँ शालू को प्यार करने की कोशिश कर रही थी। लेकिन यह क्या? माँ की आँखों मे आँसू थे। वो रो रही थी। 

“बेटा”.. लड़खड़ाती आवाज से माँ ने शालू को पुकारा।

“बोलो माँ” रोती हुई शालू बोली।

“बेटा.. म..म..मुझे…म..फ़.. कर दे”।

“कैसी बात करती हो मम्मी तुम। ऐसी बात मत करो आप ठीक हो जाओ और उठो मैंने ढेर सारी बाते करनी है”- शालू माँ से कह रही थी।

माँ की आँखों से आँसू रुक नही रहे थे। बस रह रहकर शालू के गालों को सहला रही थी। 

“तेरे भाइयों कि तरफ से……माफी”- माँ कांपती हुई आवाज से शालू से कह रही थी।

शालू का दिमाग सुन्न था। बस रोये जा रही थी। उसे माँ की इस बात से वो सब बातें याद आने लगी जिनकी वजह से शालू हमेशा दुखी होती थी।

शालू की शादी 15 साल पहले हुई थी। ससुराल ज्यादा दूर नही था। बस घर से यही कोई 5 किलोमीटर की दूरी पर। वो दिन शालू के लिए बहुत बुरा दिन था। शादी से एक दिन पहले उसके भाई से शालू की तू तू मैं मैं हो गयी। अक्सर दोनों भाई बहनों में बहस होती थी। गुलशन छोटा भाई था शालू का। गुस्सा उसकी नाक पर रहता था। बात बात पर बहन पर हाथ उठा देता था। और उस दिन भी यही हुआ था। बहन को खींच कर तमाचा जड़ गया। शादी के ठीक एक दिन पहले वो थप्पड़ उसे अंदर तक कौंध गया था। माँ ने कभी गुलशन को डांटा नही था। इसे पुत्र मोह कहें या कोई डर, मगर माँ ने उस दिन भी शालू को यही कहा कि कोई बात नही तेरा छोटा भाई है। भूल जा उसकी गलती।

बहुत रोई थी शालू उस दिन। 

शादी भी हो गयी डोली भी चली गयी। पति बहुत आकर्षक व्यक्तित्व का था शालू का। प्यार भी बहुत करता था। शादी की पहली रात को ही शालू न अपने घर के माहौल और गुलशन के रवैये की बात अपने पति से कह दी थी। उसके पति न यही कहा कि कोई बात नही तुम्हे यहाँ इतना प्यार मिलेगा कि तुन्हें वो बातें अब याद ही नही रहेंगी।

ऐसा ही हुआ। ससुराल में धीरे धीरे शालू रम चुकी थी। 

शादी के 6 महीने बाद अचानक शालू के पिताजी का भी निधन हो गया। शालू मायके गयी। दाह संस्कार के बाद वापिस लौटते समय शालू की फिर से अपने भाई से कहा सुनी हो गयी। जब घर पहुंचे तो माँ तक ये बात पहुंची। 

“मम्मी तुम गुलशन को कब अक्ल सिखाओगी बच्चा नही है वो। पहले मैं कुंवारी थी अब ससुराल वाली हूँ आखिर इसे कुछ तो तमीज़ हो कि शादी शुदा बहन से कैसे बात की जाती है”- शालू माँ से प्रश्न कर रही थी।

उसकी बातें गुलशन कान लगाकर सुन रहा था। गुस्से से लाल पीला, बहन को धक्का देकर बोला- “जा जा बड़ी आयी अक्ल सिखाने वाली”

शालू की आँखे बरस रही थी। माँ के सामने ये सब हो रहा था। 

“मम्मी तुम कुछ बोलोगी या नही” शालू ने गुस्से में कहा था।

“क्यों बात का बतंगड़ बना रही है तू शालू, बात खत्म कर”- माँ ने सीधा सा जवाब दिया।

शालू वापिस अपने ससुराल आ गयी। उसके पति चुप थे। पत्नी के चेहरे को पढ़ लिया था उन्होंने। मगर कुछ कर नही सकते थे। दुःख था क्योंकि अब वो गुलशन की बहन बाद में थी पहले उनकी पत्नी थी और उनकी पत्नी दुःखी हो ये उन्हें असह्य था।

खैर.. इसी तरह समय बीतता रहा। हद तो तब हुई थी जब गुलशन की शादी हुई। भाई की शादी में ही शालू को अपमान का घूंट सहन करना पड़ेगा ये उसने सोचा भी नही था। डोली आने के बाद जब दुल्हन के गृह प्रवेश पर शालू ने अपने लिए रीति अनुसार शगुन माँगा तो गुलशन ने पूजा की थाली हाथ से खींचकर फेंक दी थी। आज भी माँ के पास अपने बेटे को बचाने का तर्क था। वो तर्क ये था कि वो तो बचपन से ऐसा है शालू तो सयानी है उसे भाई से उलझना ही नही चाहिए।

उस दिन शालू ने कसम खायी थी कि कभी मायके नही आयेगी। उसकी भाभी ने भी यद्यपि बहुत समझाया मगर इस बार शालू निर्णय कर चुकी थी। इस निर्णय में शालू का पति भी साथ था।

कितने ही वर्ष बीत गए। शालू ने पलट कर कभी उस तरफ नही देखा। मगर आज.. जब भाभी का फ़ोन आया और मम्मी की तबियत का पता लगा तो रह नही पाई थी। जाने क्यों शालू को मन ही मन किसी अनहोनी का एहसास हो रहा था। जैसे आज बहुत कुछ छूटने जा रहा हो।

अचानक शालू को एहसास हुआ कि उसके गालो पर जो हाथ हैं वो बर्फ की तरह ठंडे हैं। 

“मम्मी….मम्मी…..मम्मी…….” शालू चिल्ला रही थी। देखते ही देखते सब एकत्र हो गए। डॉक्टर को बुलाया गया। और अंत मे शालू जान चुकी थी कि उसकी माँ अब नही रही। 

सुन्न आँखों मे बस शालू को माँ के वही शब्द सुनाई दे रहे थे..”शालू मुझे माफ़ करदो.. भाई की गलती के लिए भी मैं माफी…..”।

शायद उसे उस बात का भी आज जवाब मिल गया था कि माँ बेटे के मोह में कितनी विवश रही हो मगर आत्मा से वो भी जानती थी कि उसकी बेटी को माँ से वो प्रेम वो वात्सल्य नही मिला जिसकी वो अधिकारी थी। बस एक एहसास था जो उसकी मौत तक भी जिंदा था। वो एहसास आज शालू को मिल गया था।

महेश कुमार माटा

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