पिताजी की साइकिल
आज पिताजी की साइकिल मुझे बहुत याद आ रही है| पिताजी की याद तो रोज़ ही आ जाती है जब भी उनकी तस्वीर के आगे खड़ा होता हूँ, पर आज जब बहुत दिन बाद अपनी साइकिल निकाली तो मुझे अनायास ही वो साइकिल याद आयी जिसे मेरे पिताजी बड़े शौक से चलाया करते थे| उसी पर पिताजी ऑफिस जाया करते थे, उसमे पीछे एक करियर भी लगा होता था जिसमे कुछ सामान रखा जा सकता था| हमारे घर की शान हुआ करती थी वो हरक्यूलिस साइकिल, एक अभिमान था वह हमारा| हम लोग जिन चीज़ों को पसंद करते हैं उन चीज़ों में हमें खूबियाँ दूसरों से ज़्यादा नज़र आती हैं, वो साइकिल हरे रंग की थी और मेरे आस पास पूरे मोहल्ले में एक भी हरे रंग की साइकिल मैंने तो न देखी थी तो वो हरा मिलिट्री रंग भी हमारे सुखद अभिमान का एक अभिन्न अंग हो गया था | दोस्तों के पास कभी वो साइकिल लेकर जाना और किसी दोस्त का पूछना भर की ये कब ली और मेरा उसके २४ इंच की साइकिल होने से लेकर उसकी आरामदायक गद्दी और उसके अलग तरह के हरे रंग की तारीफों के पुल बाँध देना अक्सर हो ही जाया करता था. जब वो साइकिल घर आयी थी मुझे साइकिल चलाना आता न था, पर तब मैंने बाएं हाथ से हैंडल और दाएं हाथ से साइकिल की गद्दी को पकड़ कर पैदल चलना सीख लिया था, तो पिताजी के ऑफिस जाने के पहले कभी साइकिल को बाहर से अंदर करना या अंदर से बाहर करना मेरी सुबह की दिनचर्या के पसंदीदा काम होते थे, छोटे भाई पर लाख रोब जमाये होंगे और अपने काम करवाए होंगे पर ये काम तो मैं ही करना चाहता था. साइकिल की रोज़ सफाई करना भी मुझे पसंद था, और सफाई भी सतही तौर पर नहीं, सचमुच वाली सफाई. मसलन उसके मड गार्ड, चेन कवर को साफ़ करना, और साइकिल के पहिये को अंदर से कपडा डाल कर एक एक तार जिसे स्पोक भी कहते हैं उसे साफ़ करना, मैं तो चेन भी साफ़ कर दिया करता था अगर उस पर लगी ग्रीस काली हो रही हो तो, उद्देश्य तो यही रहता था की जब पिताजी इस साइकिल पर चलें तो उनकी और उनकी साइकिल की शान में कोई कमी न रह जाए. एक राज़ की बात कहूँ आपसे, मेरी तो दोस्ती थी उस साइकिल से, आप शायद हसें इस बात पर, लेकिन मैं उस साइकिल से कभी कभी बात भी किया करता था. मेरी नज़र में वो भी घर के एक बुज़ुर्ग जैसी थी जो मेरी काल्पनिक बातों में मुझे बेटा कहकर सम्बोधित किया करती थी, जैसे ही मैं स्कूल से वापिस घर आता था और वो घर पर हुई तो मेरा स्वागत किया करती थी और मैं भी अपना बस्ता किनारे रख उसे छूकर आता था जैसे घर आकर कोई बच्चा अपने बुज़ुर्ग के पैर सबसे पहले जाकर छुए. आज मैं बड़ा हो गया हूँ पर अंदर का वो बच्चा अभी भी अपने सभी बुज़ुर्गों से मिलना चाहता है उनके पैर छूना चाहता है, उनके पास बैठ दो बातें करना सुनना चाहता है. कभी कभी उनके वो किस्से वो ठहाके जो वो अपने भाइयों और मित्रों के साथ लगाया करते थे वो उनकी बैठकें
तक पहुँच गयी।
— संजय गुरनानी