उऋण
पौष माह की कँपकँपाती सर्दी जिसमें रजाई कँबलों में दुबके लोग मुँह बाहर निकालने से भी डरते हों ऐसे में रोज सुबह झाड़ू लेकर फुटपाथ की साफ सफ़ाई करती वो स्त्री। गिने चुने लोग ही सुबह की सैर के लिए आते जाते वहाँ, जिनमें सुशील, जो नियमित रूप से सुबह की सैर को निकलता। दूर से ही उस स्त्री को, जो शायद सफाई कर्मचारी थी, अकेले सफ़ाई करते देखता। उसकी अपने काम की प्रतिबद्धता का कायल हो गया था वह।
आज खुद को रोक न सका और चला गया उसे मिलने। बड़े अदब से बोला,
“आप रोज इतनी ठँड में भी सुबह-सुबह ही क्यों आ जाती हैं सफाई करने। थोड़ा दिन निकल जाए उसके बाद क्यों नहीं आती हैं? बाकी सब सफाई कर्मचारी तो आराम से आते हैं।”
कचरा बीनते हाथ रुक गए उसके। उठकर खड़ी हुई फिर बोली,
“यहाँ देर रात तक खाने पीने के ठेले लगते हैं जिनमें बचा हुआ बहुत सा समान ठेले वाले इधर-उधर फेंक जाते हैं, इससे पहले म्यूनिसिपैलिटी वाले आकर सब सामान कचरे में डाल दें, मैं अन्धँरे मुहँ आकर अच्छा सामान अपने परिवार के खाने पीने के लिए इकट्ठा कर लेती हूँ और बाकी झाड़ू से एक तरफ कर देती हूँ ताकि चलने वालों के पैरों तले अन्न का अनादर न होने पाए।” कहकर झाड़ू लगाने लगी।
चुप हो गया ये सुनकर सुशील। कृतज्ञता से उसकी ओर हाथ जोड़कर मुस्कुराया और आगे बढ़ चला। अचानक स्त्री ने पीछे से उसे पुकारा,
“सुनो बेटा! मैं सफाई कर्मचारी नहीं हूँ यहाँ की। उऋण होने के लिए इस फुटपाथ की साफ सफाई कर देती हूं बस। मैं तो बस एक अपाहिज की पत्नी और चार बच्चों की माँ हूँ।”
— नीता शर्मा