लघुकथा

लघुकथा – विडम्बना

रात का एक बजा है और वह रसोईघर में ही बैठी है। पहले कुछ देर पढ़ती रही फिर फोन की गैलरी खाली करने लगी। कितने स्यापे है जीवन में ,पहले किसी भी त्योहार पर बधाई संदेश भेजो फिर उन्हें मिटाओ।
नलिनी को ये कभी पसंद नहीं रहा कि गुडमॉर्निंग, गुड इवनिंग या गुड नाइट टाइप संदेश भेजकर अपना और दूसरों का समय बर्बाद करो। परन्तु कुछ व्यक्ति जीवन की ऊर्जा ही होते हैं जिन्हें नकारा नहीं जा सकता।
मकरसंक्रांति और लोहिडी के संदेश हटाते हुए उसे समय का ख्याल ही नहीं रहा। घड़ी की टिक-टिक से उसका ध्यान भंग हुआ, उसने देखा कि दो बज गए।
उसके मन में सोने का विचार आया। एकबारगी तो ख्याल आया कि रसोई में ही बिस्तर जमााया जाए। परन्तु ठंड का भयंकर रुप देख उसकी रूह काँप गयी। यह ऐसा समय नहीं है कि मात्र एक कंबल में सोया जा सके और लिहाफ ऊपर दुछत्ती में रखी है, समस्या है कि उतारे कौन? समय के साथ-साथ काम के बोझ और कितनी ही बीमारियों में जकड़ी नलिनी में खुद उतारने का सामर्थ्य नहीं है। कितनी ही बार वह धनन्जय को कह चुकी लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात।
नलिनी का मन नहीं है सोने का, फोन खाली करना तो एक बहाना है दरअसल वह आहत है धनन्जय की बात से। कल ही की तो बात है जब उसने विरोध करते कहा था-“धनंजय, शराब के नशे में तुम वहशी हो जाते हो, उसकी कमर पर लात जड़ते हुए वह बोला था-, “साली, आज के बाद मेरे कमरे में आई तो टांगें तोड़कर रख दूंगा।”
त्रासदी यह है कि उसकी समस्या का कोई समाधान नहीं है ।
स्थानाभाव से जूझते घर में उसके लिए कोई जगह नहीं है।
अंगूर की बेटी की गिरफ्त में हो तो धनंजय या तो बहुत अच्छा बोलेंगे या फिर बहुत ही कड़वा, ये परवाह किये बगैर कि नलिनी पर क्या गुजरेगी, वह बस…।
ऐसी बातें सुन-सुन नलिनी उकता गयी है।अब तो वह सब कुछ ही प्रारब्ध मान बैठी है।
एक वह भी समय था जब वह धनन्जय के पीछे – पीछे घूमती थी और वह बच्चों की तरह नखरे करता था। अब वह जिम्मेदारियों के निर्वहन में निर्लिप्त भाव से रत या फिर धनन्जय के शब्द-बाणों से आहत हो बचती है,चाहती है कि उनका आमना-सामना ही न हो।
विचारों की उहापोह में सुबह के तीन बजकर चालीस मिनट हो गए हैं।घड़ी की सुइयाँ सुबह के स्वागत को बांहें पसार आतुर हैं
और वह लेटने को। अमूमन यह उसके जगने का समय होता है
परन्तु कमर तो सीधी करनी ही पड़ेगी। अब कोई सोलह वर्षीय बाला तो रही नहीं कि बिन सोये ही जग जाए।
वह बुझे मन से चल पड़ी धनंजय के ही कमरे में, उसी के बिस्तर पर, जिनका चेहरा देखना गवारा नहीं। आखिर हाड़ मांस से बनी कमर है कोई टी.एम. टी.सरिये से नहीं। धनन्जय तेज-तेज खर्राटें भर रहा है, नलिनी का चेहरा विदीर्ण है और आंखें नम… ।

— सुमन सिंह चंदेल

सुमन सिंह चंदेल

शैक्षिक योग्यता : एम.ए. बी.एड. संप्रति : भावातीत ध्यान शिक्षिका अभिरुचि : पठन -पाठन लेखन : तुकांत -अतुकांत कविताएँ, लघुकथा, कहानी, लघु नाटक, निबंध आदि । पता -252 लद्दावाला ,निकट चंद्रा सिनेमा मुज़फ्फरनगर 251002