बीजेपी के खिलाफ 27 में फिर बदलेगा सियासी समीकरण
उत्तर प्रदेश में बीजेपी के खिलाफ एक बार फिर से सियासी समीकरण काफी तेजी के साथ बदल रहा हैं। प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी और योगी सरकार की विरोध की हांडी नहीं पक पाने के कारण प्रदेश एक बार फिर से नए सियासी समीकरण उभरते नजर आ रहे हैं। इस नये समीकरण में तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी का अहम रोल हो सकता है। इसी वजह से समाजवादी पार्टी इंडिया गठबंधन की कमान ममता बनर्जी को दिये जाने की मांग का भी समर्थन कर रहे हैं। हो सकता है 2027 के विधानसभा चुनाव के समय तक समाजवादी पार्टी कांग्रेसी पंजे से अपना हाथ छुड़ाकर ममता बनर्जी के कहने पर एक बार फिर से मायावती के सात बुआ भतीजे वाला रिश्ता निभाते नजर आए। ऐसा होता है तो यूपी में कांग्रेस को बड़ा झटका लग सकता है। यह संभावना है इसलिए बढ़ रही है क्योंकि पिछले कुछ दिनों या महीनों से कांग्रेस समाजवादी पार्टी के मुस्लिम वोट बैंक में सेंधमारी की कोशिश कर रही है। सपा-कांग्रेस के बीच दूरियां लगातार बढ़ने के साथ एक-दूसरे के खिलाफ सार्वजनिक मंचों से बयानबाजी भी हो रही है। महाराष्ट और हरियाणा के चुनाव में कांग्रेस की नाकामी भी इसमें एक अहम कड़ी समझा जा रहा है। यही दूरियां ही हैं कि संसद के अंदर भी सपा-कांग्रेस विभिन्न मुद्दों पर मजबूती से एक साथ नहीं दिख रहे हैं।सपा नेताओं का कहना है कि संभल मामले में उसके सांसद पर मुकदमे दर्ज किए जाने का कांग्रेस ने उस तरह विरोध नहीं किया जैसी उससे अपेक्षा थी। बताते हैं कि लोकसभा में फैजाबाद (अयोध्या) के सपा सांसद अवधेश प्रसाद की सीट पीछे होने पर भी दोनों दलों के रिश्तों में दरार आई है। सपा का मानना है कि सीटिंग प्लान पर बात के समय कांग्रेस ने उसे भरोसे में नहीं लिया। वहीं, कांग्रेस सूत्रों का कहना है कि सदन में अदाणी मामले में उसे सपा का अपेक्षित सहयोग नहीं मिल रहा है। हाल यह है कि जेल में बंद सपा के कद्दावर नेता और पूर्व मंत्री आजम खान ने भी इंडिया ब्लॉक को जेल से एक संदेश भेजा है। इसमें उन्होंने कहा है कि इंडिया ब्लॉक को मुसलमानों पर हो रहे हमलों पर अपनी नीति स्पष्ट करनी चाहिए। साथ ही उन्होंने समाजवादी पार्टी को भी लिखा कि संभल की घटना के जैसे ही रामपुर में हुए अत्याचार का मुद्दा भी संसद में उतनी ही मजबूती से उठाना चाहिए।
कांग्रेस और सपा के बीच दूरियां तब और बढ़ गईं जब सपा कि तरफ से कहा जाने लगा कि इंडिया गठबंधन का नेतृत्व कांग्रेस की जगह तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी को दिए जाने पर सपा को एतराज नहीं है। बता दें लोकसभा चुनाव के बाद कई चुनावों में कांग्रेस की लगातार हार के बाद इंडिया गठबंधन में अंतर्विरोध बढ़ रहे हैं। उधर दूसरी तरफ चर्चा यह भी है कि यूपी की राजनीति एक बार फिर पलट सकती है। सपा और कांग्रेस के बीच आई दूरियों के बीच मायावती का रुख नई राजनीतिक समीकरणों को जन्म दे सकता है। बहराल,सपा नेताओं का कहना है कि संभल मामले में उसके सांसद पर मुकदमे दर्ज किए जाने का कांग्रेस ने उस तरह विरोध नहीं किया जैसी उससे अपेक्षा थी। बताते हैं कि लोकसभा में फैजाबाद (अयोध्या) के सपा सांसद अवधेश प्रसाद की सीट पीछे होने पर भी दोनों दलों के रिश्तों में असहजता पैदा हुई है। सपा का मानना है कि सीटिंग प्लान पर बात के समय कांग्रेस ने उसे भरोसे में नहीं लिया। वहीं, कांग्रेस सूत्रों का कहना है कि सदन में अदाणी मामले में उसे सपा का अपेक्षित सहयोग नहीं मिल रहा है। रिश्तों में खटास का ही नतीजा है कि सपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष किरणमय नंदा ने कहा कि ममता बनर्जी वरिष्ठ नेता हैं। पार्टी हाईकमान भी यही चाहता है कि इंडिया गठबंधन का नेतृत्व ममता बनर्जी करें। सपा के प्रमुख महासचिव प्रो. रामगोपाल भी कह चुके हैं कि वे राहुल गांधी को इंडिया गठबंधन का नेता नहीं मानते हैं। इंडिया गठबंधन की समन्वय समिति में शामिल सपा के एक नेता बताते हैं कि कांग्रेस गठबंधन को लेकर गंभीर नहीं है। उसके नेता चुनाव के वक्त ही सक्रिय होते हैं जिससे जनाधार नहीं बढ़ता। ऐसे में बेहतर होगा कि गठबंधन का नेतृत्व ममता बनर्जी करें। भाजपा को मात देने के लिए रणनीति के साथ जनता के बीच लगातार जुटे रहने की जरूरत है।
बात बीएसपी की की जाए तो हरियाणा व महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव और यूपी के उपचुनाव में कांग्रेस व सपा के बीच बढ़ी दूरियों का सियासी लाभ बसपा को मिलने की उम्मीद है। पार्टी तेजी से बदले राजनीतिक घटना पर नजर बनाए हुए है। यदि कांग्रेस और सपा के बीच बात नहीं बनी तो इसकी वजह से बनने वाले तीसरे मोर्चा का बसपा अंग बन सकती है। जानकारों की मानें तो वर्तमान में पार्टी को अपना वजूद बचाने और देश की राजनीति में अपनी प्रासंगिकता को बरकरार रखने के लिए इसकी जरूरत भी है। बसपा के इतिहास पर नजर डालें तो वर्ष 2007 के यूपी विधानसभा चुनाव में उसे बहुमत मिला था। इससे पहले बसपा दूसरे दलों की मदद से सरकार बनाती रही, जिसका लाभ उसे लोकसभा चुनावों में भी मिलता गया। वर्ष 2012 में बसपा ने फिर अकेले दम पर चुनाव लड़ने का फैसला लिया, जो गलत साबित हुआ। यही हाल 2017 के विधानसभा चुनाव में भी हुआ। 2019 में बसपा ने सपा के साथ गठजोड़ कर लोकसभा चुनाव लड़ा और 10 सांसदों वाली पार्टी बनी। हालांकि इसके बाद वर्ष 2022 का विधानसभा चुनाव और 2024 का लोकसभा चुनाव अकेले लड़ने से उसे भारी नुकसान का सामना करना पड़ गया। अब पार्टी की उम्मीदें तीसरा मोर्चा बनने पर टिकी हैं। वैसे तो मायावती सपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ने को तैयार नहीं है लेकिन पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी दोनों दलों को एक मंच पर ला सकती हैं। राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो कांग्रेस को दरकिनार कर अगर तीसरा मोर्चा बना तो ममता बनर्जी उसकी निर्विवाद नेता बन सकती हैं। पहले उन्हें मायावती से चुनौती मिलने के जो समीकरण बने थे, वो बीते चुनावों में बसपा के लगातार घटते जनाधार की वजह से ध्वस्त हो चुके हैं। अब बसपा को अपना खोया हुआ जनाधार वापस पाने के लिए दूसरे दलों का सहारा लेना पड़ सकता है।इसके साथ ही बसपा सुप्रीमो ने पुराने बसपाइयों को भी वापस आने का बुलावा दिया है।
— अजय कुमार,लखनऊ