ईमानदार
एक छोटे से जंक्शन स्टेशन पर एक लोकल पैसेंजर ट्रेन रुकी। क्योंकि रेल्वे को सूचना मिली थी कि इस ट्रेन में रोज 400 – 500 यात्री बिना टिकिट यात्रा करते है। तो रेल्वे का टिकिट चेकिंग दस्ता 4 – 5 उच्चाधिकारियों सहित प्लेटफॉर्म पर चौकन्ना खड़ा था। ज्यो हीं ट्रैन रुकी, एक पढ़े लिखे, सूटेड बूटेड, सौम्य से दिखने वाले सरदारजी ट्रैन से उतरे। टिकिट चेकिंग दस्ते ने उन्हें घेर कर उनसे टिकिट पूछा, सरदारजी दस्ते को गच्चा देकर प्लेटफॉर्म के एक छोर की ओर भागने लगे। आगे आगे सरदारजी, पीछे पीछे अधिकारी। लगभग 200 मीटर भागने के बाद प्लेटफॉर्म के एक छोर पर दस्ते ने सरदार जी को धर दबोचा। सरदारजी ने अधिकारियों से कड़क कर पूछा, “आपने मुझे क्यों पकड़ा ?” अधिकारी बोले, “एक तो तुम बिना टिकिट यात्रा कर रहे हो और ऊपर से चोरों की तरह भाग भी रहे हो।” सरदारजी ने फिर कड़क कर पूछा, “मुहँ सम्भाल कर बात करो, मुझे चोर कहने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई? मैं बहुत ही पढा लिखा अर्थशास्त्री हूँ, मेरी लिखी पुस्तकें ऑक्सफोर्ड और केम्ब्रिज में पढ़ाई जाती है, मैं एक घनघोर कट्टर ईमानदार के रूप में दुनिया में प्रसिद्ध हूँ, तुमसे किसने कहा कि मैं बिना टिकिट यात्रा कर रहा?” अधिकारी बोले, “तो टिकिट दिखाओ।” सरदारजी ने 5 मिनिट तक अपने बेग की सब खाने, पेंट, शर्ट की अगली पिछली जेबें ढूंढते रहे, और आखिरी में उन्होंने पर्स में से अपना टिकिट निकाल कर एक अधिकारी के हाथ में थमा दिया।” अधिकारी ने टिकिट की जांच की और उसे सही पाया। इस पूरे प्रकरण में 15 – 20 मिनिट निकल गए थे, तब तक 300 – 400 बिना टिकिट यात्री प्लेटफार्म के दूसरे छोर से हो कर स्टेशन से बाहर निकल चुके थे। अधिकारियों ने सरदारजी को डपट कर पूछा, “जब तुम्हारे पास टिकिट था, तो तुम भागे क्यों?” सरदारजी ने मक्कारी से उत्तर दिया, “सौ सवालों से अच्छी मेरी एक खामोशी, जिसने 400 बिना टिकिट यात्रियों की इज्जत रख ली।” ऐसे ही थे हमारे सौम्य, कट्टर ईमानदार, पढे-लिखे, अतिविद्वान सरदारजी।