आक्षेप मत कर
ऐ पुरुष आक्षेप मत कर
कि निकलती हूँ मैं
कम कपड़े पहन कर
क्या कभी देखा खुद को
बजारों में, दुकानों पर
अधनंग कटि के ऊपर
ऐ पुरुष आक्षेप मत कर
यों तो समझा है मुझे
सदियों से कमतर
धन्य होती हूँ मैं खुद
एक तनय को जनकर
जान पाता तू मुझे
एक क्षण संभलकर
धन्य होती ये धरा
तनया को पाकर
क्या कभी झपटी हैं तुम पर
भेड़ियों सी झुण्ड बनकर
मैं रही अब तक सहमकर
तुम रहोगे नग्न मन भर
तू रहम कर तू रहम कर
ऐ पुरुष आक्षेप मत कर ॥
— देवेन्द्र पाल सिह बर्गली