धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

धर्मात्मा विदुर

महाभारत के अनेक पात्रों में नीति के ज्ञाता महात्मा विदुर का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। महाभारत के सभी पात्रों में केवल विदुर ही है जो हमेशा सत्य और न्याय के साथ खड़े मिलते हैं। उनका सूचना तंत्र मजबूत है। शकुनि के लाक्षागृह की योजना उन्हें सहज ही पता चल जाती है और वह बहुत ही चतुराई से पांडवों की रक्षा करने में सफल हो जाते हैं।

द्यूत क्रीड़ा में भी वह बार-बार धृतराष्ट्र से कहते हैं कि इस खेल को बंद करवाओ। लेकिन जब राजसभा में बात द्रोपदी के चीरहरण तक पहुंच जाती है तो उस सभा मे एक विदुर ही हैं जो कहने का साहस करते हैं कि”‘ धृतराष्ट्र ! आपकी सभा में यह दुर्योधन नाम का नाग फन काढ़ कर बैठा हुआ़ है। इसके फन को कुचल दो वरना यह पूरे हस्तिनापुर को अपने विशैले फन की फुफकार से मौत के मुंह में पहुंचा देगा।” किंतु जब धृतराष्ट्र दुर्योधन को नहीं रोकते हैं तो विदुर सभा से चले जाते हैं।इतना साहस करने वाले यह विदुर हैं कौन?

महाभारत के आदिपर्व में एक कथा आती है कि “एक बार चोरों ने राजकोश से मुद्राएं चुरा ली। जब राजा इस बात का पता चला तो उसे बहुत आश्चर्य हुआ और क्रोध भी आया। आश्चर्य इसलिए क्योंकि वह सोचने लगा कि जब चोरों से राजकोश ही सुरक्षित नहीं है तो आम जन की क्या हालत होगी। यही सोचकर चोरों को दंड देने के उद्देश्य से वह क्रोध से सैनिकों से बोला – “शीघ्र ही चोरों को पकड़कर राजदरबार में उपस्थित किया जाए।”

चोरों को पकड़ने के लिए राजा के सैनिक जब दशों दिशाओं को निकले तो चोर भय के माथे बचने का उपाय सोचने लगे। भागते चोरों को मार्ग में “माडव्य ऋषि’ का आश्रम मिला। ऋषि ध्यान में बैठे थे। इसी का लाभ उठाकर चोरों ने राजकोश से चुराईं मुद्राएं आश्रम के अंदर रख दी और स्वयं अपने वस्त्र फेंककर लंगोट पहनकर ध्यान में बैठने का नाटक कर सैनिकों से बचने का उपाय करने लगे।

जब सैनिक ऋषि के आश्रम में पहुंचे तो उन्होंने देखा कि सभी ध्यान में है। तभी वे आश्रम की तलाशी लेने लगे। उन्हें चोरों द्वारा आश्रम में रखीं मुद्राएं मिली तो उन्होंने सभी को बंदी बनाकर राजा के सम्मुख उपस्थित किया और कहा महाराज!ए सभी छद्म वेश धारण किए हुए चोर हैं। इनके आश्रम से चोरी की हुई मुद्राएं प्राप्त हुई हैं। राजा ने सभी को मृत्यु दण्ड देकर सूली पर चढ़ा दिया। जिससे चोरों के प्राण पखेरू उड़ गये ।किंतु माडव्य ऋषि सूली पर भी भगवान का जप करते रहे।

सैनिकों ने यह बात राजा को बताई तो राजा ने कहा , “हमने चोर समझकर किसी महान ज्ञानी मुनिवर को दंड दे दिया है। माडव्य ऋषि को सूली से उतारकर राजा ने भयभीत होकर क्षमा याचना की।

माडव्य ऋषि बोले, “राजन !हमने आपको क्षमा कर दिया है।आप निर्भय हों। किंतु मेरी समझ में यह बात नहीं आ रही है कि मुझे यह किस पाप कर्म के परिणामस्वरूप सूली पर चढ़ना पड़ा। मैंने तो कभी कोई पाप कर्म किया ही नहीं है।”

राजा बोले , “मुनि श्रेष्ठ! यह बात तो धर्म राज ही बता सकते हैं। हमें धर्मराज के पास ही चलना चाहिए।” दोनों ही धर्म राज के पास चले गये। धर्म राज ने दोनों का स्वागत किया और आने का कारण पूछा।

माडव्य मुनि ने चोर और राजा द्वारा दंड दिए जाने की सारी बात धर्मराज को बताई और पूछा कि, ” हे धर्मराज! मैंने कभी कोई पाप कर्म नहीं किया है फिर मुझे किस कर्म के परिणामस्वरूप सूली पर चढ़ने की सज़ा मिली। “

धर्मराज ने चित्रगुप्त को आदेश दिया कि मुनि श्रेष्ठ के सभी कर्मों के बारे में बताइए। चित्रगुप्त बोले ,” हे धर्मराज! ऋषिवर माडव्य ने बचपन में एक कीड़े को सुई नोक से छेद -छेद कर मार दिया था उसी पाप कर्म के कारण इनको सूली पर चढ़ना पड़ा।”

चित्रगुप्त की बात सुनकर ऋषि को क्रोध आ गया और वह बोले, “धर्मराज ! बचपन में तो मै अबोध था । मुझे पाप और पुण्य का ज्ञान ही नहीं था। तब आपने इतनी बढ़ी सजा देकर न्याय नहीं किया है। इसीलिए, ” हे धर्मराज! मैं तुम्हें श्राप देता हूं । तुम्हें मनुष्य योनि में जन्म लेना होगा। आपका जन्म दासी के गर्भ से होगा। वहां पर आप अन्याय होता देखेंगे और आपके न्याय नीति को कोई नहीं मानेगा।”

धर्मराज ने ऋषिवर का श्राप अंगीकार किया।माडव्य ऋषि के श्राप से ही धर्मराज महात्मा विदुर के रूप में हस्तिनापुर में दासी के गर्भ से पैदा हुए । ऋषि के श्राप के कारण ही धृतराष्ट्र और दुर्योधन , विदुर की न्याय नीति को नहीं मानते हैं और कहते है “आप पांडवों का पक्ष लेते हैं।”
— तारा दत्त जोशी

तारा दत्त जोशी

रा इ का हरिपुरा हरसान पो -हरिपुरा (बाजपुर) ऊ .सि. नगर 6396764016 [email protected]

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