अधिसंख्य आबादी तक पहुंचें सस्ती दवाइयां
पिछले काफी समय से जेनेरिक या ब्रांडेड दवाओं पर बहस छिड़ी है। पिछले साल नेशनल मेडिकल कमीशन ने एक नियम लागू किया था। इसमें कहा गया था कि डॉक्टरों को जेनेरिक दवाएं भी लिखनी होंगी। नियम न मानने पर कानूनी कार्रवाई की जाएगी। एनएमसी के इस फैसले के बाद इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने इस नियम पर सवाल खड़े किए थे। कई डॉक्टर एसोसिएशन ने भी नए कानून का विरोध कर इसको वापस लेने की मांग की थी। तर्क यह दिया गया था कि ब्रांडेड दवा न लिखने से मरीजों को नुकसान हो सकता है। विरोध के बाद एनएमसी ने अपना फैसला वापस ले लिया था। सरकार मरीजों को सस्ती दवाएं उपलब्ध करवाने के लिए कानून में संशोधन की तैयारी कर रही है। इसके बाद डॉक्टर्स को मरीजों के लिए सिर्फ जेनेरिक दवा लिखनी होंगी, न कि किसी विशेष ब्रांड या कंपनी की। इसके बाद भी मरीजों को सस्ती दवाएं मिलने लगेंगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है, क्योंकि जेनेरिक दवाओं के चलन से बड़ी फार्मा कंपनियों को सीधे नुकसान होगा।
आमतौर पर सभी दवाओं में एक तरह का ‘केमिकल सॉल्ट’ होता हैं। इन्हें शोध के बाद अलग-अलग बीमारियों के लिए बनाया जाता है। जेनेरिक दवा जिस सॉल्ट से बनी होती है, उसी के नाम से जानी जाती है। जैसे दर्द और बुखार में काम आने वाले पैरासिटामोल सॉल्ट को कोई कंपनी इसी नाम से बेचे तो उसे जेनेरिक दवा कहेंगे। वहीं, जब इसे किसी ब्रांड (जैसे क्रोसिन) के नाम से बेचा जाता है तो यह उस कंपनी की ब्रांडेड दवा कहलाती है। जेनेरिक दवाएं ब्रांडेड की तुलना में 10 से 20 गुना तक सस्ती होती हैं। दरअसल, फार्मा कंपनियां ब्रांडेड दवाइयों की रिसर्च, पेटेंट और विज्ञापन पर काफी पैसा खर्च करती हैं। जबकि जेनेरिक दवाइयों की कीमत सरकार तय करती है और इसके प्रचार-प्रसार पर ज्यादा खर्च भी नहीं होता।
कई जानलेवा बीमारियां जैसे एचआईवी, लंग कैंसर, लीवर कैंसर में काम आने वाली दवाओं के ज्यादातर पेटेंट बड़ी-बड़ी कंपनियों के पास हैं। वे इन्हें अलग-अलग ब्रांड से बेचती हैं। अगर यही दवा जेनेरिक में उपलब्ध हो तो इलाज पर खर्च 200 गुना तक घट सकता है। जैसे एचआईवी की दवा टेनोफिविर या एफाविरेज़ की ब्रांडेड दवा का खर्च 2,500 डॉलर यानी करीब 1 लाख 75 हजार रुपये है, जबकि जेनेरिक दवा में यही खर्च 12 डॉलर यानी महज 840 रुपये महीने तक हो सकता है। हालांकि, इन बीमारियों का इलाज ज्यादातर सुपर स्पेशियलिटी अस्पतालों में होता है। ऐसे में ये दवाएं इन अस्पतालों में या वहां के केमिस्ट के पास ही मिल पाती हैं।
देश में फार्मा इंडस्ट्री 1.20 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की है और इसकी सालाना ग्रोथ 11 प्रतिशत है। देश में सालाना करीब 1.27 लाख करोड़ की दवाएं बेची जाती हैं, इसमें 75 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा जेनेरिक दवाओं का है। भारत जेनेरिक दवाइयों का सबसे बड़ा एक्सपोर्टर है। दुनियाभर की डिमांड की 20 प्रतिशत दवाइयां भारत सप्लाई करता है। अमेरिका में 40 प्रतिशत और यूके में 25 प्रतिशत दवाइयां भारत सप्लाई करता है। 2018-19 में देश से 1,920 करोड़ डॉलर की दवाइयां एक्सपोर्ट की गईं। दुनियाभर में कुल वैक्सीन डिमांड का 50 प्रतिशत भारत से सप्लाई होता है। इनके अलावा दक्षिण अफ्रीका, रूस, ब्राजील, नाइजीरिया और जर्मनी में भी भारतीय दवाएं एक्सपोर्ट की गईं।
एक अनुमान के मुताबिक, किसी भी मरीज के इलाज के दौरान होने वाले खर्च का 70 प्रतिशत अकेले दवाओं पर खर्च हो जाता है। सरकार ने पिछले महीने लोकसभा में एक सवाल के जवाब में बताया कि इलाज और दवा पर होने वाले खर्च की वजह से देश में हर साल 3 करोड़ 8 लाख लोग गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं। फिलहाल सरकार की आयुष्मान भारत योजना से नि:शुल्क इलाज और जन औषधि केंद्रों के माध्यम से सस्ती जेनेरिक दवाओं का मिलना लोगों के लिए राहत की बात है। आयुष्मान भारत योजना का दायरा देश की अधिसंख्य आबादी तक बढ़ाने की जरूरत है।
प्रधानमंत्री भारतीय जन औषधि परियोजना (पीएमबीजेपी) के अंतर्गत सरकार का उद्देश्य लोगों को ब्रांडेड महंगी दवाइयों के स्थान पर गुणवत्ता वाली जेनेरिक दवाइयां प्रदान करना है। सरकार के प्रयास के बावजूद अभी भी देश में बड़े पैमाने पर जेनेरिक दवाओं का प्रयोग नहीं हो पा रहा है। समय आ गया है कि सामुदायिक स्तर पर जेनेरिक दवाओं को प्रोत्साहित किया जाए। देश में बढ़ती महंगाई के दौर में लोगों को सस्ती और गुणवत्तापरक दवाइयों के जरिए स्वास्थ्य सुरक्षा उपलब्ध कराना बहुत जरूरी है। ऐसे में समय आ गया है कि सभी को जेनेरिक दवाओं के माध्यम से सस्ती दवाएं मुहैया कराइ जाएं।
— विजय गर्ग