सामाजिक

घर में हो या वर्किंग वूमेन… वेतन, छुट्टी न प्रमोशन

एक औरत से पूछा कि आप हाउस वाइफ हो या वर्किंग वूमेन? वो बोली, मैं फुल टाइम वर्किंग वूमेन हूं। सुबह सबको उठाती हूं तो अलार्म घड़ी हूं, रसोइया हूं, धोबिन हूं, टेलर हूं, कामवाली बाई हूं, बच्चों की टीचर हूं, बड़े-बूढ़ों की नर्स हूं, हर वक्त घर में रहती हूं सो सिक्योरिटी गार्ड हूं। मेहमानों की रिसेप्शनिस्ट हूं, शादी-ब्याह में सजधज कर जाती हूं तो मॉडल कहलाती हूं, मेरा कोई वर्किंग आवर नहीं है, न छुट्टी, न वेतन, न इंक्रीमेंट, न प्रोमोशन। बस एक सवाल का सामना करना होता है कि मैं दिनभर करती क्या हूं।

उसके सारे कामों में सबसे ज्यादा मीन-मेख होती है उसके बनाये भोजन पर। एक मनचले ने पत्नी की परिभाषा दी है कि पत्नी उस शक्ति का नाम है जिसके घूर कर देखने भर से टिंडे की सब्जी में भी पनीर का स्वाद आने लगता है। वैसे अपने परिवारों में एक कन्फ्यूजन यह है कि रेस्टोरेंट में घर जैसा खाना चाहिए और घर में रेस्टोरेंट जैसा चटपटा। अब रसोई की रानी करे भी तो क्या करे। दाल-रोटी चूरमा-चटनी से लेकर बर्गर-नूडल तक तो बनाने लग गई है। यूट्यूब मास्टर से कोचिंग ले-लेकर तरह-तरह के छौंक लगा रही है, पकवान बना रही है। पर बच्चे खाने को देखते ही कहते हैं- क्या मम्मी यार… ये क्या बना दिया।

एक वह समय था जब समाज यह चाहता था कि बहू-बेटियां घरों में रहें और नौकरी की न सोचें। आज हर परिवार चाहता है कि बेटे के लिये वर्किंग बहू मिल जाये। उनकी समझ में आ गया कि दहेज तो एक बार ही मिलेगा और वर्किंग वूमेन आ गई तो हर महीने चैक आयेगा। हमारे बड़े-बुजुर्गों की सोच में बदलाव आया है कि महिलाएं पैसे कमाने चाहे चांद तक पहुंच जायें लेकिन चांद तक जाने से पहले वे रोटी-दाल बनाकर और चटनी कूट कर जायें।

सारा दिन किचन में वह एक टांग पर खड़ी रहे, कोई नहीं देखेगा। दो मिनट मोबाइल पकड़ ले, उसे सारे घूरने लगेंगे। एक मनचले का कहना है कि महिला दिवस था तो सात मार्च को, पर महिलाओं को तैयार होकर आने में वक्त लग गया, वे आठ मार्च को पहुंची और इसीलिये आठ मार्च को महिला दिवस मनाया जाता है।

— विजय गर्ग

विजय गर्ग

शैक्षिक स्तंभकार, मलोट

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