न्यार लाती गाम की स्त्रियाँ
गाम की स्त्रियाँ जीवन चलाने के लिए
ढोती हैं जीवन का अनचाहा बोझ,
जीवन सिर्फ़ उनका अपना नहीं
बल्कि सारे समाज का अस्तित्व ही
उनका जीवन है !
फेमिनिज़्म के बोझ को
वे बड़ी सरलता से
धारण करती हैं अपने सिर पर
वही सिर, जो प्राय:
किताबों के बोझ की तुलना में
सदा हल्का रहता है !
उन्हें पालने होते हैं
परिवार, बच्चे, पति
और ख़ानदान की परम्पराएँ !
मज़े की बात ये है कि
उन्हें इसका श्रेय भी नहीं चाहिए
क्योंकि उन्हें सिर्फ़ बोझ का पता होता है
श्रेय का नहीं !
जब यही स्त्रियाँ खेतों से
लाती हैं न्यार की गठरियाँ और भरौटे
तो सारी आधुनिकता धरी रह जाती है !
दरअसल लंबे-लंबे भाषण और
इस आधुनिकता ने आज की स्त्री को
‘शरीर’ के बाज़ार-मूल्य के सिवा दिया भी क्या है?
और ये मूल्य भी तो
उन्हें सिर्फ़ विज्ञापन बनाता है !
गाम की स्त्रियाँ
विज्ञापन नहीं
बल्कि
माँ, बेटी, बहन, पत्नी और ‘धरिणी’ हैं ! !
( न्यार = पशुओं का चारा, भरौटे = ज्वार, बाजरा, जई, जौ आदि की बँधी हुई गड्डियाँ )
— सागर तोमर