विरासत के साए
भूले-बिसरे कुछ चित्र,
धुंधली सी मुस्कान लिए,
दीवारों की दरारों में अटके,
अब भी धीरे धीरे साँस लेते हैं।
वक्त की किताब में दबे पत्ते,
सूखे नहीं—बस मौन हैं,
क्योंकि जड़ों से टूटी शाखाएँ भी
हवा में अपनी कहानी लिखती हैं।
टूटना, बिखरना, गल जाना,
क्या सच में किसी का अंत होता है?
पत्तियाँ गिरकर भी जड़ों को सींचती हैं,
छाँह बनकर लौट आती हैं।
साथ बीते दिनों की अनमोल छुअन
अब भी हथेलियों पर बाकी है,
वो स्वर, वो हँसी, वो कोमल स्पर्श,
जो कभी वर्तमान था, अब स्मृति मात्र है।
अलग होना तब अधिक चुभता है
जब दूरी नहीं, पर अनकहे संवाद होते हैं,
जब पास होकर भी अंतराल रह जाते हैं,
और आँखें स्वप्न बुनने से डरने लगती हैं।
पर क्या विरासत कभी पराई होती है?
क्या अपने सच में छूट जाते हैं?
शाखाएँ झुककर मिट्टी चूमती हैं,
और जड़ें फिर से नवांकुर रचती हैं।
— सुव्रत दे