अधूरा साया
विचलित हूँ मैं!
मन के कोने खाली है।
छिपती लाली का प्रकाश
सदा अँंधेरा कर जाता।
बुझती लौ दीपक की
सदा गहन उदासी दे जाती।
लुप्त चेतना तोड़ रही है
मोह से मुख मोड़ रही है।
व्याकुलता मन में तड़प रही
कर्मपथ धिक्कार रहा है
उर में मची उपल-पुथल से।
मौन निमंत्रण महाकाल को
दबे रह जाना क्या नियति चक्र
भाग्यकोष में घुटन भरी है
जीवन की मधुरता खोने को।
करवट बदली रातों ने तो
दिवस भोर प्रभा की लाली
अदृष्ट कर्मचक्र कालचक्र
लिपटा भाग्यकोष गुहा में
अश्रुबिंदु अटके पलकों में
निष्क्रिय चेतना की चेतावनी
करती आहूत महाकाल को।
दिग्भ्रम है जीवन सत्य
संकट छाया साँसों पर
सुलभ निज बाल चपलता
जिस पर सर्वस्व स्वत्व है
दुर्लभ बन गया कलरव।
प्रण प्राणप्रिये प्रणय प्रण
अधूरेपन का अहसास
नीरस राग अलाप
दुष्चरित्र में लिपटा हूँ।
जीवन की रंगशाला में
किरदार अधूरा है प्रिये
वंचित सुख स्वप्न
साकार नहीं सका कर मैं
क्षम्य! क्षम्य! क्षम्य! क्षम्य!
एक अधूरा साया हूँ
जीवन का भरमाया हूँ
सृष्टि का ही सरमाया हूँ
कब किस जीवन लहर को
भरपूर रूप में भाया हूँ।
वासना का उज्ज्वल कलंक
शेष बचा अपकीर्ति पंक
टूट गई अभिमान की लंक
नवजीवन की नष्ट कंक।
क्षम्य! क्षम्य! क्षम्य! क्षम्य!
— डॉ. ज्ञानीचोर