गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

आवरण में है छुपे विष के चेहरे
कोई कैसे जान पाए भेद गहरे।

एक छटपटाहट गहराई में गर्त है
तभी किनारो से लड़ रही है लहरे।

इस शहर को अब सवांरा जाएगा
ये मुनादी कर रहे है लोग बहरे।

एक अजब ही दौड़ जारी है यहाँ
कोई आखिर सुकूँ से कैसे ठहरे।

इक अदद सी कामयाबी के लिए
कितनो को पहनाऊँ यहाँ सेहरे।

क़ायनात पे गर बस उनका चलता
वो लगा देते हमारी सासों पे पहरे।

— डॉ दिलीप बच्चानी

डॉ. दिलीप बच्चानी

पाली मारवाड़, राजस्थान

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