गीत
कई सुनहरे स्वप्न, मात्र मृगतृष्णा ठहरे ।
कई सघन षडयंत्र, कई आरोप मनगढ़े।
काँटों वाले मुकुट,बिना अपराध सर चढ़े।
पीड़ा के उपहार,रक्तमय अश्रु नैन से,
बंधे पांव मे भार, जब कभी प्रेमपथ बढ़े।
होंठो पर मुस्कान , घाव थे उर पे गहरे।
कई सुनहरे स्वप्न……….….………..
मरुथल के बसंत जैसा पाया अपनापन।
कुटज सरीखा रहा, अभावों मे यह जीवन।
संन्यासी जैसा समभाव हमेशा रक्खा ,
सबका स्वागत किया, शिशिर हो या हो सावन।
मैं पतझड़ का बाग, बहारों पे हैं पहरे ।
कई सुनहरे स्वप्न………………..………..
मै निरीह,भयभीत सघन वन का कुरंग हूँ ।
घायल हूँ, पर दौड़ रहा ,रण का तुरंग हूँ ।
यदि पावक से प्रेम किया तो जलना होगा,
लेकिन मै मतवाला एक पागल पतंग हूँ ।
कल पूजेंगे लोग, आज बस पीड़ा सह रे !
कई सुनहरे स्वप्न……………….….
—–डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी