गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

घटा, पानी, हवा, बादल, नदी, सावन समझती है
जमीं जिससे जुड़ती है उसी का मन समझती है

वो दरजी के हुनर से मुतमइन हो या नहो लेकिन
सुई हर एक तुरपाई हर इक सीवन समझती है

उन्हें खुशबू जुटाने में हुई हैं मुशकिले कितनी
मगर तितली कहाँ फूलों का पागलपन समझती है

यशोदा-नंद-गोकुल सबको चिंता है कन्हैया की
बस इक जमुना ही राधा का अकेलापन समझती है ।

तरसते हैं जो खुद अपना ही चेहरा देख पाने को
न जाने कयों उन्हें भी ये सदी दरपन समझती है ।

मेरी खामोशियाँ वैसे किसी से कुछ नहीं कहतीं
मगर दुनिया तो इन आँखों का सूनापन समझती है ।

One thought on “ग़ज़ल

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत अच्छी गाज़ल है .

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