कविता

मटर के दाने ……..

एक हरे मटर की फली को छीला तो

एक दाना मेरे हाथ में आ गिरा

एक थाल में जा गिरा

जहाँ बाकी मटर के दाने पड़े थे

और तीसरा लुड़क के

जाने किस रास्ते से

घूम के कहीं छुप गया

नज़र घुमा के देखा

मगर दिखा नहीं

शायद अलमारी के नीचे होगा

मैंने भी अपना काम न रोका

और उसे भूल गया

जो हाथ में था उसे

मुहं में डाला और चबा लिया

एक मिठास थी उसमें !

 

सोचा क्या किस्मत है

पहला सीधे काल के मुहं में गिरा

फिर भी अपनी मिठास का

अनुभव किसी को दे गया !

दुसरे को कुछ लम्हें

अपने जैसों के साथ मिले

शायद सुखद अनुभव रहा होगा

मगर फिर तेज आंच पर भून दिया गया !

तीसरा भाग कर स्वतन्त्र हो गया

और अपना जीवन अकेले अलमारी के नीचे

गुज़ार कर एक दिन झाड़ू के साथ

कूड़े के ढेर में मिल गया !

 

मिट तो तीनों गये

मगर न जाने किस का

जीवन सफल रहा ?

                                    ………मोहन सेठी ‘इंतज़ार’ 

 

4 thoughts on “मटर के दाने ……..

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत खूब.

    • मोहन सेठी 'इंतज़ार', सिडनी

      जी धन्यवाद

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत खूबसूरत कविता ! गहरा चिंतन !!

    • मोहन सेठी 'इंतज़ार', सिडनी

      जी आभार

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