यशोदानंदन-२
सेवकों ने दोनों पर्यंकों को पास ला दिया। यशोदा जी की दृष्टि जैसे ही पति पर पड़ी, वे बोल पड़ीं – “कहाँ छोड़ आए मेरे गोपाल को …………?” आगे बोलने के पूर्व ही वाणी अवरुद्ध हो गई। नेत्रों ने पुनः जल बरसाना आरंभ कर दिया। नन्द जी कातर नेत्रों से श्रीकृष्ण की माता को देखे जा रहे थे। क्या उत्तर देते? उनके किसी भी उत्तर से यशोदा संतुष्ट हो पाती क्या? कभी-कभी वाणी से अधिक मौन ही संवाद में सहायक बन जाता है। यशोदा के नेत्र प्रश्न पूछ रहे थे, नन्द जी का मौन उत्तर दे रहा था। नेत्रों से बहते जल-प्रवाह अभिव्यक्ति का माध्यम बन रहे थे। समीप खड़े प्रियजन, परिचारक और परिचारिकाएं भी मौन की भाषा और नेत्र संकेतों से ही अपने कर्त्तव्य का पालन कर रहे थे। शान्त बैठे वैद्यराज भी कहाँ रोक पाए थे अपने आप को। उनके नेत्रों ने भी उनका कहना मानने से मना कर दिया था।
संध्या आई, रात्रि आई, प्रभात ने भी अपनी स्वर्णिम आभा वृज में बिखेर दी। परन्तु वृजवासियों ने सूर्य-वन्दना नहीं की। घंटा-घड़ियाल भी मौन साधे छत से लटके रहे। सबके हृदयों में अमावस्या ने स्थान बना लिया था। गोपियां न कालिन्दी से जल लाने गईं और ना ही गाय-बछड़ों की सुधि ली। सर्वत्र मौन का ही साम्राज्य था। सदा गतिशील रहने वाला पवन भी ऐसा लगता था जैसे ठहर सा गया हो। पत्ते तो खड़खड़ा सकते थे, गायें तो रंभा सकती थीं, बछड़े तो माँ को पुकार सकते थे; लेकिन सभी जड़वत्मूर्ति की तरह अपने-अपने स्थान पर भावनाशून्य खड़े थे। कौन किसकी पीड़ा बांटे?
दिन का प्रथम प्रहर समाप्त होनेवाला था। महर्षि गर्ग का गोकुल में आगमन हुआ। उन्हें सीधे नन्द जी के कक्ष में पहुंचाया गया। उन्हें देखते ही उठने की चेष्टा करते हुए नन्द जी की वाणी फूट पड़ी —
“महर्षि! मैं अनाथ हो गया। मेरा कृष्ण मुझे छोड़ गया। अब वह कभी गोकुल नहीं आयेगा। मैं इस जर्जर शरीर में प्राण धारण करके भी क्या पा लूंगा? ऋषिवर! मेरे प्राणों को मुक्त कीजिए। मैं कृष्ण के बिना एक पल भी जीवित रहना नहीं चाहता। मुझपर दया करें देव, मुझपर दया करें।”
“नन्द जी! आप तो परम ज्ञानी हैं। श्रीकृष्ण के इस भूलोक पर अवतरित होने के उद्देश्य से आप भलीभांति अवगत हैं। मैंने श्रीकृष्ण की कुण्डली बनाते समय ही इस तथ्य से अपको भिज्ञ करा दिया था। फिर एक साधारण पिता की भांति आप विलाप क्यों कर रहे हैं? आपके पुत्र ने दुर्दान्त आततायी कंस का वध कर पृथ्वी पर धर्म की पुनर्स्थापना के महान्लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में मात्र एक पग आगे बढ़ाया है। अभी तो उसे कई और महत्त्वपूर्ण कार्य करने हैं। आपकी विह्वलता का समाचार यदि उसे प्राप्त होगा, तो वह विचलित हो सकता है। जिस शुभ कार्य के लिए उसने इस पृथ्वी पर अवतार लिया है, उसे संपादित करने में आपकी भावनायें अवरोध उत्पन्न कर सकती हैं। मैं आपकी अन्तर की पीड़ा को समझ रहा हूं, परन्तु कठिन परिस्थितियों में ही एक धीर-गंभीर पुरुष की असली परीक्षा होती है। आपात्काल में ही धीरज, धर्म, मित्र और पत्नी की सही पहचान होती है। इस प्रकार शरीर को निढाल छोड़ देने से आप किसका हित कर सकेंगे? श्रीकृष्ण का, अपना, नन्दरानी का या गोकुल का? जबसे आप मथुरा से वापस आये हैं, न तो आपने अन्न-जल ग्रहण किया है और न गोकुलवासियों ने। उठिए राजन्! अपने को संभालिये।” महर्षि गर्ग ने नन्द जी के सिर को सहलाते हुए मधुर वचन कहे।
“ऋषिवर! मैं उस अवस्था को प्राप्त हो गया हूं जहाँ ज्ञान साथ छोड़ देता है और भावनाएं प्रबल हो जाती हैं। मैं जितना ही स्वयं को समझाने का प्रयास करता हूँ, विह्वलता उतनी ही बढ़ती जाती है। यशोदा की आँखें मुझे अब भी घूर रही हैं। उसकी आँखों के समुद्र में मुझे अनगिनत प्रश्न दृष्टिगत होते हैं। मैं उसके एक भी प्रश्न का उत्तर देने में स्वयं को असमर्थ पाता हूँ। मैं असहाय हो गया हूँ। मुझसे तो अच्छे अयोध्या के प्रतापी राजा दशरथ ही थे। कृष्ण के प्रति मेरा प्रेम महाराज दशरथ के राम के प्रति प्रेम से निश्चित ही उन्नीस है, तभी तो यह शरीर मेरे प्राण को धारण किए हुए है। दशरथ जी को कौशल्या के अनगिनत प्रश्नों के उत्तर तो नहीं देने पड़े। जीवन भर यशोदा मुझसे प्रश्न पूछेगी और मैं सिर झुकाकर पैए के अंगूठे से धरती कुरेदूंगा। महर्षि! मुझे यह स्थिति कही से भी स्वीकार्य नहीं है। मुझ अधम को जीने का अधिकार नहीं है।”
“धैर्य धारण करें नन्दराज! अपनी कोमल भावनाओं पर नियंत्रण स्थापित कीजिए। आपका प्राण-त्याग यदि किसी समस्या का समाधान होता, तो मैं उसके लिए भी प्रयास करता। क्या आप जीते जी या मरकर भी श्रीकृष्ण के नेत्रों में एक बूंद भी अश्रु का कण देख सकते हैं? कदापि नहीं। अपनी माँ यशोदा और आपको श्रीकृष्ण अपने प्राण से भी अधिक प्यार करता है। वह स्थितप्रज्ञ है, कर्मयोगी है परन्तु आपके निधन का समाचार पाकर वह स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख पाएगा। आप स्वयं को उसकी कमजोरी न बनने दें। उसकी आँखें निश्चित रूप से आँसुओं की बरसात करेंगी। विह्वलता के अतिरेक के कारण वह अपने संकल्पों से डिग भी सकता है। क्या आप इसे स्वीकार करेंगे? राजन्! कर्त्तव्य के इस महायज्ञ में असंख्य वीरों को भाँति-भाँति की आहुतियां देनी पड़ती हैं। ऐसा सुअवसर कई सदियों के पश्चात्उपस्थित होता है। आप सौभाग्यशाली हैं, जो परब्रह्म ने आपको यह अवसर उपलब्ध कराया है। इस महान्यज्ञ में अपनी भावनाओं की आहुति देकर अपना जन्म सफल कीजिए। श्रीकृष्ण मथुरा में ही तो है। जब जी में आए, कालिन्दी पार कीजिए और दर्शन कर लीजिए अपने लाडले कन्हैया के। फिर यह शोक कैसा? यह विलाप कैसा? आनेवाला इतिहास आपके धैर्य, संयम, कर्त्तव्यपारायणता और आदर्श स्नेह की गाथा लिखने के लिए मचल रहा है। उठिए राजन्! कर्त्तव्य-पालन कीजिए।”
महर्षि गर्ग के शब्दों ने संजीवनी-सा प्रभाव उत्पन्न किया। निढ़ाल पड़े नन्द जी ने दृष्टि उठाकर समीप खड़े प्रियजनों को देखा। सबके नेत्रों से अश्रुवर्षा हो रही थी। हाथ के इंगित से उन्होंने सबको सांत्वना दी। एक परिचारक से जल मंगाया। दो घूंट जल पीने के पश्चात्उत्तरीय से अपने अश्रुकणों को पोंछ वे यशोदा के पास आ, बैठ गए। महर्षि गर्ग की ओर आशा भरी दृष्टि से देखा, मानो कह रहे हों – मुझे तो आपने समझा दिया। अब पुत्र-वियोग में निश्चेष्ट पड़ी एक माँ को समझायें तो जानूं?
महर्षि ने नन्द जी आँखों की भाषा पढ़ ली। अब वे यशोदा जी की ओर मुड़े। शहदमिश्रित वाणी से उन्होंने नन्द रानी को संबोधित किया-
“जो बातें अभी-अभी मैंने नन्द जी से कही है, तुन्हारे लिए भी समान रूप से सत्य हैं और तुमपर भी उसी तरह लागू होती हैं। तुम महावीर श्रीकृष्ण की माँ हो जिसने महाबली कंस का खेल-खेल में वध कर दिया। तुम उस गोपाल की माता हो जिसने तर्जनी पर गोवर्धन को धारण कर इन्द्र का दर्प-दलन किया था। बकासुर, धेनुकासुर, पुतना आदि असुरों का वध करनेवाले उस अद्वितीय बालक की माँ हो जिसने सदा असंभव सा दीखने वाले महान्कार्यों को हँसते-हँसते बाँसुरी बजाते हुए संपन्न कर दिया। एक बार सोचो, विचारो और मस्तिष्क की तंत्रिकाओं पर जोर डालो। श्रीकृष्ण को अपने हृदय से उपर उठाकर कुछ क्षणों के लिए दोनों नेत्रों के बीच स्थित आज्ञा चक्र में स्थापित करो और स्वयं से प्रश्न करो — क्या वह असाधारण बालक मात्र गोपियों की मटकी तोड़ने, माखन खाने, रासलीला रचाने और तुम्हारे आंचल को पकड़ गोल-गोल चक्कर लगाने के लिए ही इस संसार में आया है? याद करो — कभी उसके मुंह में तुम्हें संपूर्ण ब्रह्माण्ड दृष्टिगत नहीं हुआ था? तुम्हीं बताओ, क्या श्रीकृष्ण को सदा के लिए अपने आंचल के साए में रखना उचित होगा? वह तुमसे अथाह, अपरिमित और अगाध प्रेम करता है। तुम यहां क्या कर रही हो, उसे सब पता है। तुम अत्यन्त विह्वल और विकल हो। जब भी उसे पुकारोगी, वह तुम्हारे सम्मुख उपस्थित हो जाएगा। वह तबतक तुम्हारे पास रहेगा, जबतक तुम जाने की आज्ञा नहीं दोगी। तुमने गंभीरता से जो भी कहा है, उसने किया है। मथुरा जाने के पूर्व भी उसने तुमसे आज्ञा ली थी कि नही? वह तुम्हारी अवज्ञा नहीं कर सकता। परन्तु उसे गोकुल की सीमा में बांधकर तुम इस पृथ्वी को उन समस्त लाभों से वंचित कर दोगी जिसके लिए श्रीकृष्ण का जन्म हुआ है। अभी तो सिर्फ कंस का वध हुआ है। असंख्य आततायी अब भी दसों दिशाओं में बिना रोक-टोक के विचरण कर रहे हैं। पृथ्वी इन अधार्मिक, अत्याचारी नरपिशाचों के बोझ से रसातल को जानेवाली है। तुम्हारा कृष्ण इस पृथ्वी के भार को हरने के लिए ही इस जगत में आया है। वह अपने हाथों से संपूर्ण विश्व में धर्म की स्थापना करेगा। फिर न कोई रावण होगा और न होगा कोई कंस। जबतक यह पृथ्वी रहेगी, यह सूर्य रहेगा, यह तारामंडल रहेगा, सागरों में जल रहेगा, तुम्हारे कृष्ण की कीर्ति-पताका गगन में लहराती रहेगी। उसके साथ कीर्ति-पताका लहरायेगी माँ यशोदा की। तुम्हारे स्तन के दूध ने ही तो उसे इतनी शक्ति प्रदान की है। तुम्हारे द्वारा दिए गए संस्कारों ने ही तो उसे जगद्गुरु बना दिया है। वह चाहे जितनी ऊँचाई प्राप्त कर ले, रहेगा तो यशोदानन्दन ही। हजारों, लाखों वर्षों के बाद भी भक्तजन जब उसकी आराधना करेंगे, तो किस नाम से उसे पुकारेंगे — यशोदानन्दन ही न। इस भूखंड की कोटिशः माताएं अपने पुत्रों का नाम यशोदानन्दन रखकर गौरवान्वित होंगी। माता कौशल्या के बाद तुम यह सौभाग्य पानेवाली इस आर्यावर्त्त की प्रथम महिला हो। मैं इस विषय पर अधिक नहीं बोलूंगा। मुझे तुम्हारे सौभाग्य से ईर्ष्या हो रही है।”
बहुत ख़ूब । यह कड़ी बहुत मार्मिक शब्दोंमें कृष्ण के जीवन का उद्देश्य स्पष्ट कर देती है।