प्राणाधार
स्वार्थ लोलुप मानव देखो, कैसे तुमको हैं काट रहे। अपने ही पतन को देखो, अब भी नहीं हैं भाँप रहे।।
Read Moreरूठ गए श्याम मेरे, कैसे मैं मनाऊँगी? भई आधी रतिया है, मैं घर कैसे जाऊँगी? राधा नाहीं गोपी नाहीं, मीरा
Read Moreजीना ही है जो, तो तू आग बन के जी। खुद को मार के, तू न यूँ ख़ाक बन के
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